आलू की सफल खेती के लिए आवश्यक है की पछेती झुलसा रोग के प्रबंधन की तैयारी पहले से ही कर लें
आलू की सफल खेती के लिए आवश्यक है की पछेती झुलसा रोग के प्रबंधन की तैयारी पहले से ही कर लें

पछेती झुलसा :आलू का विनाशकारी रोग
आलू की सफल खेती के लिए आवश्यक है की पछेती झुलसा रोग के प्रबंधन की तैयारी पहले से ही कर लें

डॉ. एसके सिंह
प्रोफ़ेसर सह मुख्य वैज्ञानिक (पौधा रोग) एवं
विभागाध्यक्ष, पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी एवं प्रधान अन्वेषक अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना (फल), डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा , समस्तीपुर बिहार

लेट ब्लाइट(पिछेती झुलसा) एक अत्यधिक विनाशकारी बीमारी है जो मुख्य रूप से आलू और टमाटर को प्रभावित करती है, हालांकि यह सोलानेसी परिवार के अन्य सदस्यों को भी संक्रमित कर सकती है। यह बीमारी 19वीं सदी के मध्य में कुख्यात आयरिश आलू अकाल के लिए जिम्मेदार थी, जिससे बड़े पैमाने पर फसल बर्बाद हुई और अकाल पड़ा। तब से, वैश्विक स्तर पर आलू उत्पादकों के लिए लेट ब्लाइट एक प्रमुख चिंता का विषय बना हुआ है।

भारत में आलू साल भर उगाई जाने वाली एक महत्त्वपूर्ण फसल है। आलू का प्रयोग लगभग सभी परिवारों में किसी न किसी रूप में  किया जाता है| इसे सब्जियों का राजा कहते है। आलू कम समय में पैदा होने वाली फसल है। इस में स्टार्च, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन विटामिन सी व खनिजलवण काफी मात्रा में होने के कारण इसे कुपोषण की समस्या के समाधान का एक अच्छा साधन माना जाता है। आलू की फसल में नाशीजीवो (खरपतवारों, कीटों व रोगों ) से लगभग 40 से 45 फीसदी की हानि होती है| कभी कभी यह हानि शत प्रतिशत होती है।

भारत में आलू की खेती लगभग 2.4 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में की जाती है। आज के दौर में इस का सालाना उत्पादन 24.4 लाख टन हो गया है। इस समय भारत दुनिया में आलू के क्षेत्रफल के आधार पर चौथे और उत्पादन के आधार पर पांचवें स्थान पर है। आलू की फसल को झुलसा रोगों से सब से ज्यादा नुकसान होता है। आलू की सफल खेती के लिए आवश्यक है की समय से आलू की पछेती झुलसा रोग का प्रबंधन किया जाय।

लेट ब्लाइट का इतिहास 1840 के दशक का है जब यह पहली बार यूरोप में एक विनाशकारी रोगज़नक़ के रूप में उभरा था। 1845-1852 का आयरिश आलू अकाल, जो देर से तुड़ाई के कारण उत्पन्न हुआ, इतिहास की सबसे दुखद कृषि आपदाओं में से एक है, जिसके कारण लाखों लोगों की मृत्यु हुई और पलायन हुआ। यह रोग उत्तर प्रदेश के मैदानी तथा पहाड़ी दोनों इलाकों में आलू की पत्तियों, शाखाओं व कंदों पर हमला करता है। बिहार में आलू में भी यह रोग कई बार महामारी के रूप में आ चुका है।

रोगज़नक़ जीवविज्ञान

लेट ब्लाइट रोगज़नक़ फाइटोफ्थोरा इन्फेस्टैन्स के कारण होता है। यह जीव ठंडी, नम स्थितियों में पनपता है और हवा के माध्यम से या संक्रमित पौधे सामग्री के माध्यम से तेजी से फैलता है। इसके जीवन चक्र में यौन और अलैंगिक प्रजनन दोनों शामिल हैं, जो बदलती पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुकूल होने और नियंत्रण उपायों से बचने की इसकी क्षमता में योगदान करते हैं।

लक्षण

लेट ब्लाइट के लक्षण विशिष्ट और पहचानने में आसान होते हैं। जब वातावरण में नमी व रोशनी कम होती है और कई दिनों तक बरसात या बरसात जैसा माहौल होता है, तब इस रोग का प्रकोप पौधे पर पत्तियों से शुरू होता है| यह रोग 4 से 5 दिनों के अंदर पौधों की सभी हरी पत्तियों को नष्ट कर सकता है। पत्तियों की निचली सतहों पर सफेद रंग के गोले गोले बन जाते हैं, जो बाद में भूरे व काले हो जाते हैं। पत्तियों के बीमार होने से आलू के कंदों का आकार छोटा हो जाता है और उत्पादन में कमी आ जाती है| इस के लिए 20-21 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान मुनासिब  होता है। आर्द्रता इसे बढ़ाने में मदद करती है| आलू की सफल खेती के लिए आवश्यक है की इस रोग के बारे में जाने एवं प्रबंधन हेतु आवश्यक फफुंदनाशक पहले से खरीद कर रख ले एवं ससमय उपयोग करें अन्यथा रोग लगने के बाद यह रोग आप को इतना समय नहीं देगा की आप तैयारी करें।पूरी फसल नष्ट होने के लिए 4 से 5 दिन पर्याप्त है।

आर्थिक प्रभाव

लेट ब्लाइट का आर्थिक प्रभाव गहरा है। इस बीमारी के कारण फसल को होने वाले नुकसान से सालाना अरबों डॉलर का नुकसान होता है। नुकसान को कम करने, उत्पादन लागत में वृद्धि और रोगज़नक़ में रासायनिक प्रतिरोध के जोखिम को कम करने के लिए किसान अक्सर कवकनाशी  का सहारा लेते हैं। विकासशील देशों में, जहां फफूंदनाशकों की पहुंच सीमित है, लेट ब्लाइट से भोजन की कमी और आर्थिक अस्थिरता हो सकती है।

लेट ब्लाइट (पिछेती झुलसा) रोग को कैसे करें प्रबंधित?

लेट ब्लाइट का प्रबंधन करना एक जटिल चुनौती है। फसल चक्र, प्रतिरोधी किस्मों को रोपना और अच्छी स्वच्छता बनाए रखने जैसी सांस्कृतिक प्रथाएँ संक्रमण के जोखिम को कम करने में मदद कर सकती हैं। फफूंदनाशी लेट ब्लाइट को नियंत्रित करने के लिए एक सामान्य उपाय है, लेकिन जैसे-जैसे रोगज़नक़ प्रतिरोध विकसित करता है, उनकी प्रभावशीलता कम हो जाती है। एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम) दृष्टिकोण, जो विभिन्न रणनीतियों को जोड़ते हैं, अधिक टिकाऊ समाधान प्रदान करते हैं।

जिन किसानों ने अभी तक आलू की बुवाई नही किया है वे मेटालोक्सिल एवं मैनकोजेब मिश्रित फफूंदीनाशक की 1.5 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर उस में बीजों को आधे घंटे डूबा कर उपचारित कने के बाद छाया में सूखा कर बोआई करनी करें। जिन्होंने फफूंदनाशक दवा का छिड़काव नहीं किया है या जिन खेतों में झुलसा बीमारी नहीं हुई है, उन सभी को सलाह है कि मैंकोजेब युक्त फफूंदनाशक 0.2 प्रतिशत की दर से यानि दो ग्राम दवा प्रति लीटर पानी में  घोलकर छिड़काव करें। एक बार रोग के लक्षण दिखाई देने के बाद मैनकोजेब नामक दे का कोई असर नहीं होगा इसलिए जिन खेतों में बीमारी के लक्षण दिखने लगे हों उनमें साइमोइक्सेनील मैनकोजेब दवा की 3 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर  छिड़काव करें। इसी प्रकार फेनोमेडोन मैनकोजेब 3 ग्राम प्रति लीटर में घोलकर छिड़काव कर सकते है। मेटालैक्सिल एवं मैनकोजेब मिश्रित दवा की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर भी छिड़काव किया जा सकता है।एक हेक्टेयर में 800 से लेकर 1000 लीटर दवा के घोल की आवश्यकता होगी। छिड़काव करते समय पैकेट पर लिखे सभी निर्देशों का अक्षरशः पालन करें।

चुनौतियाँ और भविष्य का दृष्टिकोण

लेट ब्लाइट कृषि के लिए महत्वपूर्ण चुनौतियाँ बनी हुई है। जलवायु परिवर्तन, रोगज़नक़ों के लिए अधिक अनुकूल परिस्थितियाँ बनाने की अपनी क्षमता के साथ, एक बढ़ती हुई चिंता का विषय है। इसके अतिरिक्त, फाइटोफ्थोरा इन्फेस्टैन्स के कवकनाशी-प्रतिरोधी उपभेदों का विकास जैविक नियंत्रण एजेंटों और प्रतिरोध के लिए प्रजनन जैसे वैकल्पिक नियंत्रण तरीकों में चल रहे शोध की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

निष्कर्षतः, आलू का देर से झुलसना वैश्विक खाद्य सुरक्षा और कृषि अर्थव्यवस्थाओं के लिए एक बड़ा खतरा बना हुआ है। इस विनाशकारी बीमारी के इतिहास, जीव विज्ञान और प्रबंधन को समझना इसकी मौजूदा चुनौतियों से निपटने और फसल उत्पादन पर इसके प्रभाव को कम करने के लिए महत्वपूर्ण है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ेंगे, लेट ब्लाइट और इसके विनाशकारी परिणामों के खिलाफ लड़ाई में निरंतर अनुसंधान और नवाचार आवश्यक होंगे।