आम की सफल खेती के लिए आवश्यक है की इसमें लगनेवाले रोग एवं कीड़ों का ससमय प्रबंधन किया जाय
आम की सफल खेती के लिए आवश्यक है की इसमें लगनेवाले रोग एवं कीड़ों का ससमय प्रबंधन किया जाय

प्रोफ़ेसर (डॉ) एसके सिंह
मुख्य वैज्ञानिक (पौधा रोग), प्रधान अन्वेषक अखिल भारतीय फल अनुसंधान परियोजना  एवम्
सह निदेशक अनुसंधान 
डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय , पूसा , समस्तीपुर, बिहार

आम को फलों का राजा कहते है। दरभंगा, बिहार को आम की राजधानी है। आम अपनी सुगंध एवं गुणों के कारण लोगों में अधिक लोकप्रिय है। विश्व के अनेकों देशों में आम की व्यवसायिक बागवानी की जाती है। परन्तु यह फल जितना लोकप्रिय अपने देश में है उतना किसी और देश में नहीं। हमारे देश में पहाड़ी क्षेत्रों को छोड़कर आम की बागवानी लगभग हर एक भाग में की जाती है। इसकी व्यावसायिक खेती उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और गुजरात के राज्य में किया जाता है। इसकी सफल खेती के लिए आवश्यक है की इसमें लगनेवाले प्रमुख रोग एवं कीड़ों को पहचान कर ससमय उसे प्रबंधित किया जाय

खर्रा (चूर्णिल आसिता) रोग
इस रोग में मंजरियों, पत्तियों एवं नए फलों पर सफेद चूर्णिल परत दिखाई पड़ती है। यह बहुत ही विनाशकारी रोग है जो कभी-कभी पूरी फसल को नष्ट कर देता है। रोग ग्रसित पत्तियों और गुम्मा ग्रसित मंजरियों की छंटाई से प्राथमिक रोग कारक की मात्रा को कम किया जा सकता है जिससे बाद में रासायनिक नियंत्रण अधिक फायदेमंद होता है। सबसे अधिक नुकसान मंजरियों पर इस रोग के प्रकोप से होता है। रोकथाम हेतु मंजरियों के निकलने से पूर्व घुलनशील सल्फर (गंधक) के महीने चूर्ण (200-300 मेश) का बुरकाव करना चाहिए। यह बुरकाव प्रात: काल, जब पत्तियों एवं टहनियों पर ओस की नमी मौजूद हो, करना फायदेमंद होता है। एक पेड़ के लिए लगभग 500 ग्राम गंधक की आवश्यकता पड़ती है। फल लग जाने के बाद कवकनाशी दवाईयां जैसे डाइनोकैप 1 मिली. प्रति लीटर पानी में घोलकर  छिड़काव करना चाहिए। रोग की उग्रता के अनुसार  1-2 छिड़काव  10 दिन के अंतराल पर करना चाहिए।

श्यामवर्ण (एंथ्रेकनोज)
रोग के लक्षण काले रंग के गोल या अनिश्चित आकार के धब्बों के रूप में नई पत्तियाँ, टहनियाँ, फूलों व फलों पर नजर आते हैं। रोगग्रस्त ऊतक सूखकर गिर जाते हैं। श्यामवर्ण रोग के लक्षण मंजरी के मुख्य अक्ष एवं पार्श्व-शाखाओं पर छोटे व गहरे रंग के धब्बे के रूप में भी दिखाई पड़ते हैं। रोगी पुष्प मुरझाकर गिर जाते हैं। इस बीमारी से बचाव हेतु रोगी टहनियों की छंटाई कर देनी चाहिए। कवकनाशी दवाईयां जैसे हेक्साकोनाजोल या प्रोपिकोनाजोल (1 मिली  लीटर प्रति लीटर पानी) अथवा कॉपर आक्सीक्लोराइड (3 ग्राम प्रति लीटर पानी) का छिड़काव जनवरी माह से जून-जुलाई तक करना चाहिए। पहला छिड़काव मंजरियों के आने के पहले और शेष फल लगने पर करना चाहिए। शुरू में दो छिड़काव में एक सप्ताह और बाद में 15 दिन का अंतर होना चाहिए।

शीर्षारंभी क्षय (डाई बैक)
इस रोग के मुख्य लक्षण विशेषत: पेड़ों की टहनियों एवं शाखाओं का झुलसना, उनकी सभी पत्तियों का गिर जाना तथा सम्पूर्ण पेड़ का झुलसा हुआ दिखना है। विशेषतौर पर वर्षा के बाद अक्टूबर-नवम्बर के महीनों में यह रोग स्पष्ट से दिखाई पड़ता है। रोगी स्थान से गोंद निकलता है। रोग का संक्रमण कलम बांधे हुए जोड़ों पर होने से नए पौधे मर जाते हैं। रोगी टहनियों की कटाई-छंटाई कर देनी चाहिए। टहनियों की छंटाई करते समय ध्यान रखें कि उन्हें लगभग 8 से 10 सेंमी. रोगी स्थान के नीचे से काटे। कटाई के बाद बोर्डो मिश्रण (5:5:50) या कॉपर आक्सीक्लोराइड (3 ग्राम प्रति लीटर पानी) का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। दूसरा छिड़काव मैनकोजेब एवं कार्बेंडाजिम मिश्रित फफुंदनाशक दवा की 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।

काली आसिता (सूटी मोल्ड)
यह रोग आम पर आक्रमण करने वाले कीटों जैसे आम का फुदका, गुजिया कीट द्वारा तथा शल्कीय कीट पेड़ों की पत्तियों और टहनियों पर मीठा स्राव उत्पन्न करने से होता हैं। एस स्राव पर काली फफूंद बड़ी तेजी से वृद्धि करता है। पत्तियों का हरा भाग ढक जाने के कारण प्रकाश संश्लेषण कार्य धीमा हो जाता है। कीटनाशी दवा जैसे कार्बेरिल (2 मिली. प्रति लीटर पानी) या क्लोरापायरीफ़ॉस (5 मिली. प्रति 10 लीटर पानी) या डायमेथोएट (रोगर) (1 मिली. प्रति लिटर पानी) का छिड़काव करना चाहिए। इसके बाद एक या दो छिड़काव कॉपर आक्सीक्लोराइड (3 ग्राम प्रति लीटर पानी) करना चाहिए।

भुनगा कीट (मैंगो हॉपर)
वयस्क तथा शिशु कीट कोमल प्ररोहों पत्तियों तथा पुष्पक्रमों का रस चूसते हैं। निरंतर रस चूसे जाने के कारण बौर कमजोर हो जाते हैं और छोटे और बड़े फल गिरने लगते हैं। इसके अतिरिक्त ये भुनगे मधु जैसा चिपचिपा पदार्थ भी निकालते हैं, जिसके फलस्वरूप पत्तियों, प्ररोहों और फलों पर काली फफूंदी उगने लगती है। भुनगों के नियंत्रण के लिए कार्बेरिल (2 मिली. प्रति लीटर पानी) का 15 दिन के अंतर से छिड़काव करना चाहिए। इस बात का ध्यान रहें कि फूल पूरे खिले होने के अवस्था में छिड़काव न किया जाए, अन्यथा परागण करने वाले कीट भी नष्ट हो जाएंगे। इन रसायनों का फफूंदनाशक दवाओं के साथ मिलाकर भी छिड़काव किया जा सकता है।

गुजिया कीट (मिली बग)
गुजिया कीट की मादा, अप्रैल-मई में पेड़ों से नीचे उतर कर भूमि की दरारों में प्रवेश कर अंडे देती है। अंडे भूमि में नवम्बर-दिसम्बर तक सुप्तावस्था में रहते हैं। छोटे-छोटे अवयस्क अण्डों से निकलकर दिसम्बर के अंतिम सप्ताह में आम के पौधों पर चढ़ना प्रारम्भ कर देते हैं। अच्छी धूप निकलने के समय ये अधिक क्रियाशील होते हैं। बच्चे और वयस्क मादा कीट जनवरी से मई तक बौर व एनी कोमल भागों से रस चूसकर उनकों सूखा देते हैं। इस कीट के प्रकोप से बचाव हेतु खरपतवार को गुड़ाई करके नवम्बर-दिसम्बर माह में बागों से निकाल देने से अंडे नष्ट हो जाते हैं। दिसम्बर माह में बाग़ की जुताई करके वृक्ष के तने के आस पास क्लोरपाइरीफ़ॉस चूर्ण (1.5 प्रतिशत) 250 ग्राम प्रति वृक्ष के हिसाब से मिट्टी में मिला देने से अण्डों से निकालने वाले अवयस्क मर जाते हैं। साथ ही साथ पॉलीथीन के 25 सेंमी. पट्टी पेड़ के तने के चारों ओर भूमि की सतह से 30-45 सेंमी. ऊँचाई गुजिया कीट को वृक्षों पर ऊपर चढ़ने से रोका जा सकता है। पट्टी के दोनों सिरे सुतली से बाँधने चाहिए। इसके बाद थोड़ी ग्रीस पट्टी के निचले घेरे पर लगाने से इस कीट को पट्टी के नीचे से चढ़ने को रोका जा सकता है। अगर किसी कारणवश उपरोक्त विधि न अपनाई गई हो और गुजिया पेड़ पर चढ़ गई हो तो ऐसी अवस्था में मोनोक्रोटोफ़ॉस (5 मिली. प्रति 10 लीटर पानी) अथवा डायमेथोएट (2.0 मिली. प्रति लीटर पानी) का छिड़काव करना चाहिए।

तना बेधक (शूट बोरर)
इस कीट के गिडार पेड़ों के तनों में प्रविष्ट होकर उनके अंदर के भागों को खाकर नुकसान पहुँचाते हैं। गिडार तने में ऊपर की ओर सुरंग बनाकर बढ़ते जाते हैं। जिसके फलस्वरूप पौधों की शाखाएं सूख जाती हैं। कीट का अधिक प्रकोप होने से पेड़ मर भी सकता है। गिडार तने के अंदर प्यूपा में बदल जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए प्रभावित शाखाओं को गिडार तथा प्यूपे सहित काटकर नष्ट कर देना चाहिए। इसके अलावा छिद्रों को साफ़ कर उनमें कीटनाशी घोल डालकर छिद्रों को बंद कर इन कीटों का सफलतापूर्वक नियंत्रण किया जा सकता है।

शूटगॉल
यह कीट उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तरी बिहार और पश्चिम बंगाल के तराई वाले इलाकों में एक गंभीर समस्या है। एस कीट के शिशुओं द्वारा पत्तियों की कलिकाओं से रस चूसने के फलस्वरूप, उनका पत्तियों के रूप में विकास नहीं हो पाता, बल्कि यह नुकीले गांठ में परिवर्तित होकर अंत में सूख जाते हैं। इस कीट द्वारा निर्मित गांठें साधारणत: सितम्बर-अक्टूबर में देखे जा सकते हैं। कीट का सफलतापूर्वक नियंत्रण, मोनोक्रोटोफ़ॉस (1 मिली. प्रति लीटर पानी) अथवा क्वीनलफ़ॉस (2 मिली. प्रति  लीटर पानी) का 15 दिनों के अंतराल पर 2 छिड़काव अगस्त के मध्य से करने से किया जा सकता है।

काला सिरा (ब्लैक टिप)
एस फल विकार को कोयली तथा चिमनी रोग के नामों से भी जाना जाता है। विकार के लक्षण अप्रैल-मई माह में जब फलों का आकार लगभग 1 सेंमी., का हो जाता है, तो दिखाई पड़ने लगते हैं। फल के सिरे पर काले धब्बे इस रोग के विशेष लक्षण हैं। यह विकार ईंट के भट्टों से निकलने वाले धुएं में विद्यमान जहरीली गैसों जैसे सल्फर डाइऑक्साइड, एथिलीन तथा कार्बन मोनोऑक्साइड के कारण होता है। इससे बचाव हेतु ईंट एवं चूने को भट्टों को बागानों से कम से कम 1.0 से 1.5 किमी. दूर रखना चाहिए। कम से कम 15 मीटर ऊँची चिमनियों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। जहां तक संभव हो भट्टों में काम फल लगने के समय से पकने के समय अर्थात मार्च के प्रथम सप्ताह से मई के तीसरे सप्ताह तक बंद कर देना चाहिए। पेड़ों पर सुहागा 6-8 किग्रा. प्रति हजार लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। कुल तीन छिड़काव की आवश्यकता पड़ती है। पहला छिड़काव फूल आने के पूर्व, दूसरा छिड़काव फल लग जाने के बाद  तथा तीसरा छिड़काव 15 अप्रैल के आस पास  करना चाहिए।