आम लगाने का मौसम आ गया अधिक से अधिक आम लगाए, आम की आधुनिक बागवानी कैसे करें?
आम लगाने का मौसम आ गया अधिक से अधिक आम लगाए, आम की आधुनिक बागवानी कैसे करें?

प्रोफ़ेसर (डॉ) एसके सिंह
मुख्य वैज्ञानिक (पौधा रोग), प्रधान अन्वेषक अखिल भारतीय फल अनुसंधान परियोजना  एवम्
सह निदेशक अनुसंधान 
डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर, बिहार

आम को फलों का राजा कहते है। दरभंगा, बिहार को आम की राजधानी कहा जाता है।आम अपनी सुगंध एवं गुणों के कारण लोगों में अधिक लोकप्रिय है। विश्व के अनेकों देशों में आम की व्यवसायिक बागवानी की जाती है। परन्तु यह फल जितना लोकप्रिय अपने देश में है उतना किसी और देश में नहीं। हमारे देश में पहाड़ी क्षेत्रों को छोड़कर आम की बागवानी लगभग हर एक भाग में की जाती है। हालांकि, व्यावसायिक खेती उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और गुजरात के राज्य में किया जाता है।

आम की खेती समुद्र तल से 1,500 मीटर की ऊँचाई तक की जा सकती है परन्तु व्यावसायिक दृष्टि से इसे 600 मीटर तक ही लगाने की सलाह दी जाती है। तापक्रम में उतार-चढ़ाव, वर्षा, आंधी आदि आम की उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। आम 5.0 से 40.0 डिग्री सेंटीग्रेड वार्षिक तापमान वाले क्षेत्रों में अच्छा पनपता है परन्तु 20 से 36 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान इसके लिए आदर्श माना जाता है। उत्तर भारत में दिसम्बर, जनवरी के महीनों में तापमान में उतार-चढ़ाव के चलते फूल जल्द निकलने शुरू हो जाते हैं। ऐसी मंजरियों में नर पुष्पों के संख्या अधिक होती है तथा उनमें गुच्छा रोग होने की संभावना अधिक होती है। मंजरियों के निकलते समय वर्षा होने से अत्यधिक नुकसान होता है और बीमारियों एवं कीटों का प्रकोप बढ़ जाता है। आम के छोटे पौधों पर पाले का प्रभाव अधिक होता है।

आम की खेती के लिए दोमट मिट्टी जिसका पीएच मान 6 से 7.5 और जिसमें अच्छी जल निकास की व्यवस्था हो सर्वोत्तम होती है। आम की जड़ें जमीन में गहराई तक फैलती हैं अत: पौधों के समुचित विकास हेतु लगभग 2 से 2.5 मीटर गहरी मिट्टी की आवश्यकता पड़ती है। क्षारीय तथा लवणीय भूमि आम के लिए अच्छी नहीं मानी जाती है ऐसी भूमि में पत्तियों पर सूखेपन के लक्षण दिखाई पड़ते हैं और पौधों का विकास धीमी गति से होता है।

उत्तर प्रदेश में उगाई जाने वाली आम की प्रमुख किस्में
दशहरी, लंगड़ा,चौसा, बाम्बे ग्रीन,गौरजीत, रतौल,जाफरानी, लखनऊ सफेदा, आम्रपाली।

बिहार में उगाई जाने वाली आम की प्रमुख किस्में
बम्बईया, गुलाब ख़ास, मिठुआ, मालदा, किशन भोग, लंगड़ा, दशहरी, फजली, हिमसागर, चौसा, आम्रपाली

मल्लिका
आम की यह किस्म नीलम तथा दशहरी के संकरण से विकसित की गई है। इसके पौधे मध्यम ओजस्वी तथा नियमित फलन देने वाले होते हैं। यह किस्म उत्तर भारत में उतनी प्रचलित नहीं है जितनी दक्षिण भारत में है। आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक में इसकी व्यवसायिक खेती बढ़ रही है। फल मध्यम आकर (300-350 ग्राम) के तथा गूदा अधिक (74.8 प्रतिशत) होता है। यह किस्म प्रसंस्करण हेतु उपयुक्त पाई गई हैं। हमारे देश में एस किस्म के फलों का निर्यात अमेरिका तथा खाड़ी देशों में किया गया है।

आम्रपाली
यह किस्म, दशहरी एवं नीलम के संकरण से सन 1979 में विकसित की गई है। पौधे बौने तथा नियमित फलन देते हैं। उत्तर भारत में यह संकर किस्म अधिक बौनी होने के कारण सघन बागवानी हेतु अत्यंत उपयुक्त है। यह किस्म देर से पकती है। फल मध्यम आकार के, अधिक गूदेदार (74.8 प्रतिशत) तथा मिठास (22.8 प्रतिशत) से भरपूर होते हैं। एस किस्म में कैरोटीन की काफी अधिक मात्रा पाई जाती है। इस किस्म को प्रसंस्करण हेतु काफी उपयोगी पाया गया है।

बाग़ स्थापना
आम के बाग़ लगाने से पहले खेत को गहरा जोतकर समतल कर लेना चाहिए। इसके बाद जितनी दूरी पर पौधे लगाने है उतनी दूरी पर 1 मी. x 1 मी. x 1 मी. के गड्ढ़े मई-जून माह में खोद लेना चाहिए। गड्ढों से निकली मिट्टी में लगभग 50 किलो अच्छी किलो अच्छी तरह से सड़ी गोबर की खाद मिला देना चाहिए। इन गड्ढों को पौध लगाने के 20-25 दिन पूर्व गोबर मिली मिट्टी से भर दिया जाता है। दीमक की समस्या हो तो 100 ग्राम क्लोरपायरीफ़ॉस चूर्ण प्रति गड्ढ़े की दर से मिट्टी में मिला देना चाहिए। गड्ढ़े भरते समय मिट्टी को अच्छी तरह दबाते हैं और सतह से 15-20 सेमी. ऊपर तक भरते हैं। यदि गड्ढा भरने के बाद वर्षा न हो तो एक सिंचाई कर देते हैं जिससे गड्ढों की मिट्टी बैठ जाए। आम के पौधों को लगाने के लिए पूरे देश में वर्षा ऋतु सबसे उपयुक्त माना गया है क्योंकि इन दिनों वातावरण में पर्याप्त नमी होती है। ऐसे क्षेत्र जहां पर वर्षा अधिक होती है पौध लगाने का कार्य वर्षा के अंत में तथा जहां वर्षा कम होती है वहां वर्षाकाल के प्रारम्भ में रोपण कार्य करना चाहिए बाग़ लगाने के लिए पौधशाला से लाए जाने वाले पौधों को मिट्टी समेत चारों ओर से अच्छी तरह खोदकर निकालना चाहिए जिससे जड़ों को कम से कम नुक्सान पहुंचे। पौधों को पूर्व चिहिन्त गड्ढों के बीचों बीच पिण्डी के बराबर गड्ढा खोदकर उसमें रोपित कर देना तथा आसपास की मिट्टी को अच्छी तरह दबा देना चाहिए। पौध लगाने के बाद उसके चारों ओर सिंचाई के लिए थाली बना देना चाहिए।

पोषण प्रबंधन
पौध के लगाने के बाद पहले वर्ष में 100 ग्राम नत्रजन, 50 ग्राम फास्फोरस और 100 ग्राम पोटाश प्रति पेड़ के हिसाब से डालना चाहिए। प्रारम्भ के वर्षो में पेड़ों की बढ़वार तेजी से होती है इसलिए ऊपर दी गई पहले वर्ष की मात्रा उम्र के अनुसार हर वर्ष बढ़ाना चाहिए। इस तरह दस वर्ष का पेड़ होने पर 1000 ग्राम नत्रजन, 500 ग्राम फास्फोरस और 1000 ग्राम पोटाश प्रति पेड़ के हिसाब से देना चाहिए। दस वर्ष पर यह मात्रा स्थिर कर दी जाती है और बाद में हर वर्ष यही मात्रा पौधों को दी जाती है। ऐसी भूमि जिसमें क्लोराइड की मात्रा अधिक हो उनमें म्यूरेट ऑफ़ पोटाश उर्वरक का प्रयोग बिलकुल नहीं करना चाहिए। इसके स्थान पर पोटेशियम सल्फेट उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए। उत्तर भारत में गोबर की खाद तथा फास्फेट युक्त उर्वरकों को अक्टूबर तक अवश्य देना चाहिए। नत्रजन एवं पोटाश उर्वरकों की आधी मात्रा अक्टूबर माह में और शेष आधी मात्रा फल तुड़ाई के बाद जून-जुलाई माह में देनी चाहिए। जस्ते की कमी को पूरा करने के लिए 2 प्रतिशत जिंक सल्फेट तथा 1 प्रतिशत बुझे हुए चूने के घोल का छिड़काव मार्च-अप्रैल, जून तथा सितम्बर माह में करना चाहिए। इसी प्रकार मैंगनीज की कमी की पूर्ति के लिए 0.5 प्रतिशत मैंगनीज सल्फेट का छिड़काव नई पत्तियों पर करना चाहिए। बोरान की पूर्ति के लिए सामान्य अवस्था में 250 से 500 ग्राम बोरेक्स प्रति पौधे की दर से प्रयोग करना चाहिए। ऐसे क्षेत्र जहां बोरान की कमी के लक्षण अक्सर दिखाई पड़ते हों वहां 0.6 प्रतिशत बोरेक्स के घोल के तीन छिड़काव 10 दिन के अंतराल पर अप्रैल-मई माह में करना चाहिए।

जल प्रबंधन
उत्तर भारत में फलदार वृक्षों की अक्टूबर से जनवरी तक सिंचाई नहीं करनी चाहिए। साथ ही साथ फूल आने के समय भी सिंचाई रोक देनी चाहिए और जब फल मटर के दाने के बराबर हो जाए तब से लेकर फलों के परिपक्व होने तक निश्चित अंतराल पर सिंचाई करना अति आवश्यक होता है। उत्तर भारत में सर्दियों में पाला पड़ता है व गर्मियों में लू चलती है अत: गर्मियों में बाग़ की सिंचाई 7-10 दिन के अंतर पर और जाड़ों में 15-20 दिन के अंतर पर करनी चाहिए। आजकल टपक सिंचाई प्रणाली का प्रभाव अत्यंत लाभकारी सिद्ध हो रहा है।

अंत:शस्यन
आरम्भ के वर्षों में पौधों के बीच खाली स्थान में दूसरी फसलें उगाकर अतिरिक्त आमदनी ली जा सकती है। रबी के मौसम में मटर, मसूर, गोभी, धनिया, पालक और मैथी, खरीफ में उड़द, मूंग, लोबिया, मिर्च, अदरक, हल्दी और ज्वार तथा जायद में लोबिया, मिर्च, तोरई और भिण्डी आदि फसलें उगाकर अतिरिक्त आमदनी प्राप्त की जा सकती है।

फलों की तुड़ाई एवं उपज
फलों की परिपक्वता का अनुमान फलों के रंग को देखकर अथवा पानी में डुबोकर किया जा सकता है। यदि अधिकांश फल पानी में डूब जाए तो समझना चाहिए कि फल परिपक्व हो चुके हैं और तुड़ाई की जा सकती है। तुड़ाई के समय इस बात की सावधानी बरतनी चाहिए कि फलों को किसी प्रकार की चोट न पहुंचे तथा फल डंठल (2-3 सेंमी.) सहित तोड़े जाएं। कलम से तैयार पौधे चौथे वर्ष से फल देना आरम्भ कर देते हैं। सामान्यत: दस वर्ष पुराने परम्परागत पद्धति में लगाए गए तथा वैज्ञानिक ढंग से देखरेख किए गए पौधों से 300-750 फल प्राप्त हो जाते हैं।
 
श्रेणीकरण
आम के फलों का श्रेणीकरण, उनकी किस्म, रंग, आकार एवं परिपक्वता के आधार पर करना आवश्यक होता है। बड़े आकार के फल छोटे फलों की अपेक्षा देर से पकते हैं तथा बड़े फलों की भंडारण क्षमता 2-3 दिन अधिक होती है। क्षतिग्रस्त, रोगग्रस्त एवं ठीक तरह से न पके फलों को छांट देना चाहिए। फलों की गुणवत्ता अधिक दिनों तक बनाएं रखने के लिए श्रेणीकरण एवं पेटीबंदी प्रक्रिया कोडेक्स के अनुसार की जानी चाहिए। फल भार के आधार पर आम के फलों का श्रेणीकरण नीचे दिया गया है।