लीची के नए बाग कैसे लगाए, जो बाग अभी फलन में नही है एवं फल की तुड़ाई उपरांत बागों की देखभाल कैसे करे?
लीची के नए बाग कैसे लगाए, जो बाग अभी फलन में नही है एवं फल की तुड़ाई उपरांत बागों की देखभाल कैसे करे?

प्रोफेसर (डॉ) एसके सिंह
प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना (फल) एवं 
सह निदेशक अनुसंधान
डॉ राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय
पूसा 848 125, समस्तीपुर बिहार

लीची के फल अपने आकर्षक रंग, स्वाद और गुणवत्ता के कारण भारत में भी नही बल्कि विश्व में अपना विशिष्ट स्थान बनाए हुए है। लीची उत्पादन में भारत का विश्व में चीन, ताइवान के बाद तीसरा स्थान है। पिछले कई वर्षो में इसके निर्यात की अपार संभावनाएं विकसित हुई हैं, परन्तु अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बड़े एवं समान आकार तथा गुणवत्ता वाले फलों की ही अधिक मांग है। इसकी खेती के लिए एक विशिष्ट जलवायु की आवश्यकता होती है, जो सभी स्थानों पर उपलब्ध नहीं है। लीची देश की एक महत्वपूर्ण फल फसल है जिसमें जबरदस्त घरेलू बाजार और निर्यात की क्षमता है। वर्ष 2020-21 के आंकड़े के अनुसार भारत में 98 हजार हेक्टेयर में लीची की खेती हो रही है, जिससे कुल 7206 हजार मैट्रिक टन उत्पादन होता है, जबकि बिहार में लीची की खेती 32 हजार हेक्टेयर में होती है जिससे 300 मैट्रिक टन लीची का फल प्राप्त होता है। बिहार में लीची की उत्पादकता 8टन/हेक्टेयर है जबकि राष्ट्रीय उत्पादकता 7.4 टन /हेक्टेयर है। संभावित उत्पादकता 14-15 टन / हेक्टेयर के बीच व्यापक अंतर मौजूद है। लीची भारत के उत्तरी बिहार, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड में देहरादून एवं पिथौरागढ़, असम और झारखंड में राँची एवं पूर्वी सिंहभूम में इसकी खेती होती है । बिहार कुल लीची का 40% उत्पादन करता है और भारत में लगभग 38% क्षेत्र पर कब्जा करता है। हमारे देश में लीची के फल 10 मई से लेकर जुलाई के अंत तक मिलते हैं एवं उपलब्ध रहते है। सबसे पहले लीची के फल त्रिपुरा में पक कर तैयार होते है। इसके बाद क्रमश: राँची एवं पूर्वी सिंहभूम (झारखंड), मुर्शीदाबाद (पं. बंगाल), मुजफ्फरपुर एवं समस्तीपुर (बिहार), उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र, पंजाब, उत्तरांचल के देहरादून एवं पिथौरागढ़ की घाटी में फल पक कर तैयार होते है। बिहार की लीची अपनी गुणवत्ता के लिए देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी प्रसिद्ध  हैं।  लीची के फल पोषक तत्वों से भरपूर एवं स्फूर्तिदायक होते है। इसके फल में शर्करा 11%, प्रोटीन 0.7%, वसा 0.3%, एवं अनेक विटामिन प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। लीची के फल मुख्यत: ताजे रूप में ही खाए जाते हैं। इसके फलों से अनेक प्रकार के परिरक्षित पदार्थ जैसे – जैम, पेय पदार्थ (शरबत, नेक्टर, कार्बोनेटेड पेय) एवं डिब्बा बंद फल बनाए जाते हैं।

लीची का बढ़ता निर्यात
भारत से लीची का ताजा फल मई से जुलाई तक उपलब्ध होता है जिसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में निर्यात करके विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है। चूँकि जब भारत में लीची तैयार होती है उस समय अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लीची फलों का अभाव रहता है। अत: भारत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मुख्य निर्यातक के रूप में स्थापित हो सकता है। भारत से लीची निर्यात को बढ़ावा देने के लिए एपीडा की भूमिका प्रमुख है। लीची का निर्यात किया गया जो मुख्य रूप से बेल्जियम, सउदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, ओमान, कुवैत एवं नार्वे देशों को होता है।

भूमि एवं जलवायु
लीची की खेती के लिए सामान्य पी.एच.मान वाली गहरी बलुई दोमट मिट्टी अत्यंत उपयुक्त होती है। उत्तर बिहार की मिट्टी जिसकी जल धारण क्षमता अधिक है इसकी खेती के लिए उत्तम मानी गई है। अधिक जलधारण क्षमता एवं ह्रूमस युक्त मिट्टी में इसके पौधों में अच्छी बढ़वार एवं फलोत्पादन के लिए बहुत अच्छा होता है। मार्च एवं अप्रैल में गर्मी कम पड़ने से लीची के फलों का विकास अच्छा होता है, साथ ही अप्रैल-मई में वातावरण में सामान्य आर्द्रता रहने से फलों में गूदे का विकास एवं गुणवत्ता में सुधार होता है। फल के विकास के समय यदि तापमान 35 डिग्री सेल्सियस  से कम रहे एवं वतावरण में पर्याप्त आर्द्रता रहने से फलों में फटने की समस्या कम हो जाती है। फल पकते समय वर्षा होने से फलों का रंग एवं गुणवत्ता प्रभावित होती है।विगत कई वर्षो से देखा जा रहा है की अप्रैल मई के महीने में अधिकतम तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक पहुच जाने की वजह से फलों की गुणवक्ता ख़राब हो जा रही है तथा फलों का आकार प्रकार भी छोटा हो जा रहा है। इससे बचने के लिए आवश्यक है की बागों में ओवर हेड स्प्रिंकलर लगाकर गुणवक्ता युक्त फल प्राप्त किये जा सकते है।

लीची की प्रमुख किस्में
परिपक्वता के आधार पर लीची की किस्मों का विबरण निम्नलिखित है 

  1. अगेती- 15-30 मई शाही, त्रिकोलिया, अझौली, ग्रीन, देशी।
  2. मध्यम -01-20 जून रोज सेंटेड,डी-रोज,अर्ली बेदाना, स्वर्ण रूपा।
  3. पछेती -10-15 जून चाइना, पूर्वी, कसबा।

शाही
यह देश की सर्वाधिक लोकप्रिय व्यावसायिक एवं अगेती किस्म है। इस किस्म के फल गोल एवं गहरे लाल रंग वाले होते है जो 20-30 मई तक पक जाते है। फल में सुगंधयुक्त गूदे की मात्रा अधिक होती है जो इस किस्म की प्रमुख विशेषता है। फल विकास के समय उचित जल प्रबंध से पैदावार में वृद्धि होती है। इस किस्म के 15-20 वर्ष के पौधे से 80-100 कि.ग्रा. उपज प्रति वर्ष प्राप्त की जा सकती है।

चाइना
यह एक देर से पकने वाली लीची की किस्म है, जिसके पौधे शाही की तुलना में अपेक्षाकृत बौने होते है। इस किस्म के फल बड़े, शक्वाकार होते है। इस प्रजाति में  फल के फटने की समस्या कम होती है। फलों का रंग गहरा लाल तथा गूदे की मात्रा अधिक होने के कारण इसकी अत्यधिक मांग है। परन्तु इस किस्म में एकान्तर फलन की समस्या देखी गई है। एक पूर्ण विकसित पेड़ से लगभग 70-80 कि.ग्रा. उपज प्राप्त होती है।

पौधा प्रवर्धन
लीची की व्यावसायिक खेती के लिए गूटी विधि द्वारा तैयार पौधा का ही उपयोग किया जाना चाहिए। बीजू पौधों में पैतृक गुणों के अभाव के कारण अच्छी गुणवत्ता के फल नहीं आते हैं तथा उनमें फलन भी देर से होता है। गूटी तैयार करने के लिए मई-जून के महीने में स्वस्थ एवं सीधी डाली चुन कर डाली के शीर्ष से 40-45 सें.मी. नीचे किसी गांठ के पास गोलाई में 2-2.5 सें.मी. चौड़ा छल्ला बना लेते हैं। छल्ले के ऊपरी सिरे पर आई.बी.ए. के 2000 पी.पी.एम. पेस्ट या रूटेक्स का लेप लगाकर छल्ले को नम मॉस घास से ढककर ऊपर से 400 गेज की सफेद पालीथीन का टुकड़ा लपेट कर सुतली से कसकर बांध देना चाहिए। गूटी बाँधने के लगभग 2 माह के अंदर जड़े पूर्ण रूप से विकसित हो जाती है। इस समय डाली की लगभग आधी पत्तियों को निकालकर एवं मुख्य पौधे से काटकर नर्सरी में आंशिक छायादार स्थान पर लगा दिया जाता है।

पौधा रोपण
लीची के पौधे औसतन 10x10 मी. की दूरी पर लगाना चाहिए। अप्रैल-मई माह में 90x 90x 90 सें.मी. आकार के गड्ढे खोद कर ऊपर की आधी मिट्टी को एक तरफ तथा नीचे की आधी मिट्टी को दूसरे तरफ रख देते हैं। वर्षा प्रारम्भ होते ही जून के महीने में 20-25 किग्रा गोबर की खूब सड़ी खाद (कम्पोस्ट)+ 2 कि.ग्रा. करंज / नीम की खली+1.0 कि.ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट + 50 ग्रा. क्लोरपाइरीफ़ॉस, 10% धूल/20 ग्रा. फ्यूराडान-3 जी/20 ग्रा. थीमेट-10 जी को गड्ढे की ऊपरी सतह की मिट्टी में अच्छी तरह मिलाकर गड्ढा भर देना चाहिए। गड्ढे को खेत की सामान्य सतह से 10-15 सें.मी. ऊँचा भरना चाहिए। वर्षा ऋतु में गड्ढे की मिट्टी दब जाने के बाद उसके बीचों बीच में खुरपी की सहायता से पौधे की पिंडी के आकार की जगह बनाकर पौधा लगा देना चाहिए। पौधा लगाने के पश्चात उसके पास की मिट्टी को ठीक से दबा दें एवं पौधे के चारों तरफ एक थाला बनाकर 2-3 बाल्टी (25-30 ली.) पानी डाल देना चाहिए।

खाद एवं उर्वरक
यदि आप का पेड़ 15 वर्ष या 15 वर्ष से ज्यादा है तो उसमे 500-550 ग्राम डाइअमोनियम फॉस्फेट ,850 ग्राम यूरिया एवं 750 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश एवं 25 किग्रा खूब अच्छी तरह से सडी गोबर की खाद पौधे के चारों तरफ मुख्य तने से 2 मीटर  दूर रिंग बना कर खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए।

यदि आपका पेड़ 15 वर्ष से छोटा है तो उपरोक्त खाद एवं उर्वरक के डोज में 15 से भाग दे दे, इसके बाद जो आएगा उसमे पेड़ की उम्र से गुणा कर दे यही उस पेड़ के लिए खाद एवं उर्वरकों का डोज होगा। जिन बगीचों में जिंक की कमी के लक्षण दिखाई दे उनमें 150-200 ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति वृक्ष की दर से सितम्बर माह में अन्य उर्वरकों के साथ देना लाभकारी पाया गया है।

सिंचाई
लीची के छोटे पौधों में स्थापना के समय नियमित सिंचाई करनी चाहिये। जिसके लिये जाड़े में 5-6 दिनों तक गर्मी में 3-4 दिनों के अंतराल पर थाला विधि से सिंचाई करनी चाहिए। लीची के पूर्ण विकसित पौधे जिनमें फल लगना प्रारम्भ हो गया हो उसमें फूल आने के 3-4 माह पूर्व (नवम्बर से फरवरी) पानी नहीं देना चाहिए। लीची के पौधों में फल पकने के छ: सप्ताह पूर्व (अप्रैल के प्रारम्भ) से ही फलों का विकास तेजी से होने लगता है। अत: जिन पौधों में फलन प्रारम्भ हो गया है उनमें इस समय उचित जल प्रबंध एवं सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। पानी की कमी से फल का विकास रुक जाता है एवं फल फटने  लगते हैं। अत: उचित जल प्रबंध से गूदे का समुचित विकास होता है तथा फल फटने  की समस्या कम हो जाती है। विकसित पौधों में छत्रक के नीचे छोटे-छोटे फव्वारे लगाकर लगातर नमी बनाए रखा जा सकता है। शाम के समय बगीचे की सिंचाई करने से पौधों द्वारा जल का पूर्ण उपयोग होता है।  बूंद-बूंद सिंचाई विधि द्वारा प्रतिदिन सुबह एवं शाम चार घंटा पानी (45-50) लीटर देने से लीची के फलों का अच्छा विकास होता है।

पौधों की देख-रेख एवं काट-छांट
लीची के पौधे लगाने के पश्चात शुरुआत के 3-4 वर्षो तक समुचित देख-रेख करने की आवश्यकता पड़ती है।
खासतौर से ग्रीष्म ऋतु में तेज गर्म हवा (लू) एवं शीत ऋतु में पाले से बचाव के लिए कारगर प्रबंध करना चाहिए। प्रारम्भ के 3-4 वर्षो में पौधों की अवांछित शाखाओं को निकाल देना चाहिए जिससे मुख्य तने का उचित विकास हो सके। तत्पश्चात चारों दिशाओं में 3-4 मुख्य शाखाओं को विकसित होने देना चाहिए जिससे वृक्ष का आकार सुडौल, ढांचा मजबूत एवं फलन अच्छी आती है। लीची के फल देने वाले पौधों में प्रतिवर्ष अच्छी उपज के लिए फल तोड़ाई के समय 15-20 सें.मी. डाली सहित तोड़ने से उनमें अगले वर्ष अच्छे कल्ले निकलते हैं तथा उपज में वृद्धि होती है। पूर्ण विकसित पौधों में शाखाओं के घने होने के कारण पौधों के आंतरिक भाग में सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंच पाता है जिससे अनेक कीड़ों एवं बीमारियों का प्रकोप देखा गया है। पूरक

अ. छोटे पौधों में काट-छांट
लीची के नवजात पौधों में कांट-छांट का मुख्य उद्देश्य ढांचा निर्माण होता है। जिससे पौधे लम्बे समय तक सतत रूप से फल दे सकें। प्रारम्भ के 3-4 वर्षो तक पौधों के मुख्य तने की अवांछित शाखाओं को निकाल देने से मुख्य तनों का अच्छा विकास होता है और अंतरशस्यन में भी आसानी रहती है।
 जमीन से लगभग 1 मी. ऊँचाई पर चारों दिशाओं में 3-4 मुख्य शाखाएं रखने से पौधों का ढांचा मजबूत एवं फलन अच्छी होती है। समय-समय पर कैंची व सीधा ऊपर की ओर बढ़ने वाली शाखाओं को काटते रहना चाहिए।

ब. फल देने वाले पौधों में काट-छांट
लीची के फलों की तोड़ाई के बाद उसमें नये कल्ले निकलते हैं जिन पर जनवरी के अंत में या फरवरी में मंजर(फूल) आते हैं। यदि फलों की तुड़ाई करते समय किसी तेज धारदार औजार से गुच्छे के साथ-साथ 15 -20 सें.मी. टहनियों को भी काट दिया जाय तो उन्ही डालियों से जुलाई-अगस्त में औजपूर्ण एवं स्वस्थ कल्लों का विकास होता है जिस पर फलन अच्छी होती है।इसके अतिरिक्त लीची के पौधों के अंदर की पतली, सूखी तथा न फल देने वाली शाखाओं को उनके निकलने के स्थान से काट देने से अन्य शाखाओं में कीड़ों एवं बीमारियों का प्रकोप कम हो जाता है। कटाई के बाद शाखाओं के कटे भाग पर कॉपर-ऑक्सीक्लोराइड लेप लगा देने से किसी भी प्रकार के संक्रमण की समस्या नहीं रहती है। काट-छांट के पश्चात पौधों की समुचित देखरेख, खाद एवं उर्वरक प्रयोग तथा पौधों के नीचे गुड़ाई करने से पौधों में अच्छे कल्लों का विकास होता है तथा उपज भी बढ़ती है

अंतरवर्तीय फसले 
लीची के वृक्ष को पूर्ण रूप से तैयार होने में लगभग 12-15 वर्ष का समय लगता है। अत: प्रारम्भिक अवस्था में लीची के पौधों के बीच की खाली पड़ी जमीन का सदुपयोग अन्य फलदार पौधों एवं दलहनी फसलों/सब्जियों को लगाकर किया जा सकता अंतरशस्यन के रूप में दलहनी, तिलहनी एवं अन्य फसलें जैसे फ्रेंचबीन, भिन्डी, मूंग, एवं धान आदि की खेती सफलतापूर्णक की जा सकती है।

फलन
गूटी द्वारा तैयार लीची के पौधों में चार से पाँच वर्षो के बाद फूल एवं फल आना आरम्भ हो जाता है। फूल आने के संभावित समय से लगभग तीन माह पहले पौधों में सिंचाई बंद करने से मंजर बहुत ही अच्छा आता है।  लीची के पौधों में तीन प्रकार के फूल आते हैं। शुद्ध नर फूल सबसे पहले आते है जो मादा फूल आने के पहले ही झड़ जाते है। अत: इनका उपयोग परागण कार्य में नही हो पाता है। कार्यकारी नर फूल जिनमें पुंकेसर भाग अधिक विकसित तथा अंडाशय भाग विकसित नही होता है, मादा फूल के साथ ही आते है। इन्ही नर पुष्पों से मधुमक्खियों द्वारा परागण होता है। लीची में उभयलिंगी मादा फूलों में ही फल का विकास होता है। इन फूलों में पुंकेसर अंडाशय के नीचे होता है अत: स्वयं परागण न होकर कीटों द्वारा परागण की आवश्यकता होती है इसलिये अधिक फलन के लिये मादा फूलों का समुचित परागण होना चाहिए और परागण के समय कीटनाशी दवाओं का छिड़काव नही करना चाहिए इससे फलन प्रभावित होती है।

अच्छी फलन एवं गुणवत्ता के लिये सुझाव
लीची के बगीचे में अच्छी फलन एवं उत्तम गुणवत्ता के लिये निम्नलिखित बिन्दुओं पर विशेष ध्यान देना चाहिए:

  1. मंजर आने के सम्भावित समय से तीन माह पहले पौधों में सिंचाई न करें तथा अंतरशस्यन फसल न लगाएं।
  2. मंजर आने के 30 दिन पहले पौधों पर जिंक सल्फेट (2 ग्रा./लीटर) के घोल का पहला एवं 15 दिन बाद दूसरा छिड़काव करने से मंजर एवं फूल अच्छे आते है।
  3. फूल आते समय पौधों पर कीटनाशी दवा का छिड़काव न करें तथा बगीचे में पर्याप्त संख्या में मधुमक्खी के छत्ते रखें।
  4. फल लगने के एक सप्ताह बाद प्लैनोफिक्स (1 मि.ली./3 ली.) का एक छिड़काव करके फलों को झड़ने से बचाएं।
  5. फल लगने के 15 दिन बाद से घुलनशील बोरोन  @ 4 ग्रा./ली. के घोल का 15 दिनों के अंतराल पर तीन छिड़काव करने से फलों का झड़ना कम हो जाता है, मिठास में वृद्धि होती है तथा फल के आकार एवं रंग में सुधार होने के साथ-साथ फल कटने की समस्या भी कम हो जाती है।

समस्याएँ एवं निदान

  1. फलों का फटना: सिचाई, 15 अप्रैल के आस पास घुलनशील बोरोन @ 4 ग्राम /लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करे
  2. फलों का झड़ना: प्लानोफिक्स @ 1 मिली लीटर /3 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करे 
  3. लीची की मकड़ी (लीची माइट): जुलाई महीने में 15 दिनों के अंतराल पर क्लोरफेनपीर 10 ईसी @ 3 मिलीलीटर / लीटर) या प्रोपारगिट 57 ईसी @ 3 मिलीलीटर प्रति लीटर के दो छिड़काव करना चाहिए। अक्टूबर महीने में नए संक्रमित टहनियों की कटनी छंटनी करके क्लोरफेनपीर 10 ईसी (3 मिलीलीटर / लीटर) या प्रोपारगिट 57 ईसी (3 मिलीलीटर / लीटर) का छिड़काव करने से लीची माईट की उग्रता में भारी कमी आती है। 
  4. टहनी छेदक (शूट बोरर): सायपरमेथ्रिन @1.0 मि.ली./ली. घोल का कोपलों के आने के समय 7 दिनों के अंतराल पर दो छिड़काव करना चाहिए।
  5. फल एवं बीज बेधक (फ्रूट एवं सीड बोरर): थियाक्लोप्रिड 21.7 एससी या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल @ 1.0 मिली / ली पानी में घोलकर छिडकाव करते है। दूसरा कीटनाशक छिडकाव, पहले छिडकाव के 12-15 दिन बाद; इमिडाक्लोप्रिड 17.8 SL या थियाक्लोप्रिड 21.7 एससी @ 1.0 मिली / ली पानी। तीसरा कीटनाशक छिडकाव: अगर मौसम की स्थिति सामान्य है यानी रुक-रुक कर बारिश नहीं हो रही है तब फल तुड़ाई के 10-12 दिन पहले निम्नलिखित तीन कीटनाशकों में से किसी भी एक का छिड़काव करें यथा नोवलुरॉन 10% ईसी@1.5 मिली / ली पानी या इमामेक्टिन बेंजोएट 5% एसजी@ 0.5 ग्राम / लीटर पानी या लैम्ब्डा साइहलोथ्रिन 5% ईसी @ 0.5 मिली / ली पानी। लीची में फल छेदक कीट का प्रकोप कम हो इसके लिए आवश्यक है की साफ-सुथरी खेती को बढ़ावा दिया जाय।
  6. छिलका खाने वाले पिल्लू (बार्क इटिंग कैटरपिलर): तनों में छेदक अपने बचाव के लिए टहनियों के ऊपर अपनी विष्टा की सहायता से जाला बनाते हैं। इनके प्रकोप से टहनियां कमजोर हो जाती हैं और कभी भी टूटकर गिर सकती है। इसका रोकथाम भी जीवित छिद्रों में पेट्रोल या नुवान या फार्मलीन से भीगी रुई ठूंसकर चिकनी मिट्टी से बंद करके किया जा सकता है। इन कीड़ों से बचाव के लिए बगीचे को साफ़ रखना श्रेयस्कर पाया गया है।

उपज
लीची के पौधों में जनवरी-फरवरी में फूल आते हैं एवं फल मई-जून में पक कर तैयार हो जाते है। फल पकने के बाद गहरे गुलाबी रंग के हो जाते हैं और उनके ऊपर के छोटे-छोटे उभार चपटे हो जाते है। प्रारम्भिक अवस्था में लीची के पौधों से उपज कम मिलती है। परन्तु जैसे-जैसे पौधों का आकार बढ़ता है फलन एवं उपज में वृद्धि होती है। पूर्ण विकसित 15-20 वर्ष के लीची के पौधों से औसतन 80-100 कि.ग्रा. फल प्रति वृक्ष प्रतिवर्ष प्राप्त किये जा सकते है।