केला की खेती पर जाड़े का दुष्प्रभाव
केला की खेती पर जाड़े का दुष्प्रभाव

केला की खेती पर जाड़े का दुष्प्रभाव

केला के घौद (बंच) का ठीक से आभासी तने से बाहर न आना ( बनाना थ्रोट चोकिंग) - जाडे में केला का एक महत्वपूर्ण  विकार

डॉ. एस.के .सिंह
प्रोफेसर सह मुख्य वैज्ञानिक (पौधा रोग), प्रधान अन्वेषक अखिल भारतीय अनुसंधान परियोजना फल 
एवम् सह निदेशक अनुसंधान
डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय
पूसा , समस्तीपुर बिहार

बिहार में केला की खेती कुल 34.64 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में होती है, जिससे कुल 1526 हजार  टन उत्पादन  प्राप्त होता है। बिहार की उत्पादकता 44.06 टन /हेक्टेयर है। जबकि राष्ट्रीय स्तर पर केला 880 हजार  हेक्टेयर क्षेत्रफल में उगाया जाता है, जिससे कुल 30,008 हजार टन उत्पादन प्राप्त होता है। केला की राष्ट्रीय उत्पादकता 34.10 टन /हेक्टेयर है। इसकी खेती के लिए आवश्यक है कि तापक्रम 13-40 डिग्री के मध्य हो। जाडो में न्यूनतम तापमान जब 10 से डिग्री नीचे जाता है तब केला के पौधे के अंदर प्रवाह हो रहे द्रव्य का प्रवाह रुक जाता है, जिससे केला के पौधे का विकास रूक जाता है एवम् कई तरह के विकार दिखाई देने लगते है जिनमें मुख्य थ्रोट चॉकिंग है।

केला की खेती पर जाड़े का दुष्प्रभाव
 केला के पौधे का सक्रिय विकास रुक जाता है जब निम्नतम तापमान 10 डिग्री से कम हो जाता है तब पत्तियां पीली हो जाती हैं और गंभीर मामलों में, ऊतक मारने लगते है। बंच (गुच्छा) विकास सामान्य होता है, लेकिन जब फूल निकलने का समय कम तापमान के साथ मिल जाता है, तो गुच्छा आभासी तना (स्यूडोस्टेम) से बाहर ठीक से आने में असमर्थ हो जाता है। रासायनिक कारण भी "चोक" का कारण बन सकते है जैसे, कैल्शियम और बोरान की कमी भी इसी तरह के लक्षणों का कारण हो सकते है। पुष्पक्रम का बाहर का हिस्सा बाहर आ जाता है और आधार (बेसल) भाग आभासी तने में फंस जाता है। इसलिए, इसे गले का चोक (थ्रोट चॉकिग) कहा जाता है। गुच्छा को परिपक्वता होने में कभी कभी 5-6 महीने लग जाते है। ऐसे पौधे जिनमें फलों का गुच्छा उभरने में या बाहर आने में विफल रहता है, या असामान्य रूप से मुड़ जाता है।

केला की खेती पर जाड़े का दुष्प्रभाव का कैसे करें प्रबंधन?
बिहार में टिशू कल्चर केला को लगने का सर्वोत्तम समय मई से सितंबर है। इसके बाद लगाने से इसकी खेती पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है। इसको लगने का सबसे बड़ा सिद्धांत यह है कि कभी भी केला में फूल जाड़े में नहीं आना चाहिए क्योंकि जाड़े मै अत्यन्त ठंडक की वजह से बंच की बढ़वार अच्छी नहीं होती है या कभी कभी बंच ठीक से आभासी तने से बाहर नहीं आ पाता है। उत्तक संवर्धन से तैयार केला मै फूल 9वे महीने में आने लगता है जबकि सकर से लगाए केले में बंच 10-11वे महीने में आता है।
यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि केला एक ऐसी फसल है जिसे पानी की पर्याप्त आपूर्ति की आवश्यकता होती है, इसे पूरे वर्ष में (कम से कम 10 सेमी प्रति माह) इष्टतम रूप से वितरित किया जाना है। जाड़े के मौसम में केला के खेत की मिट्टी का हमेशा नम रहना आवश्यक है। जाडा शुरू होने के पूर्व केला के बागान कि हल्की जुताई गुड़ाई करके उर्वरकों की संस्तुति मात्रा का 1/4 हिस्सा देने से भी इस विकार की उग्रता में भारी कमी आती है।