फ्यूजारियम विल्ट (ट्रापिकल रेस-4): भारतवर्ष विशेष रूप से बिहार में केलों का एक खतरनाक एवं विनाशकारी रोग
फ्यूजारियम विल्ट (ट्रापिकल रेस-4): भारतवर्ष विशेष रूप से बिहार में केलों का एक खतरनाक एवं विनाशकारी रोग

डॉ. एस.के .सिंह
प्रोफेसर सह मुख्य वैज्ञानिक ( पौधा रोग), प्रधान अन्वेषक अखिल भारतीय अनुसंधान परियोजना फल 
एवम् सह निदेशक अनुसंधान
डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय
पूसा , समस्तीपुर बिहार

जलवायु परिवर्तन एवं विविध कारणों की वजह से भारतवर्ष में सर्वप्रथम बौनी प्रजाति के केला में पनामा विल्ट रोग वर्ष 2015 में बिहार के कटिहार जिले में पाया गया। पनामा विल्ट केला की एक प्रमुख बीमारी है, जो केला की उपज को प्रभावित करता है । इस रोग की वजह से बिहार के कोशी क्षेत्र  के किसान केला की खेती छोड़ कर अन्य फसलों की तरफ जा रहे है। इस बिमारी की तुलना कोविड़-19 से भी कर सकते है, क्योंकि आज तक इस बिमारी का कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं खोजा जा सका है।
बिहार में केला कुल 34.64 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में उगाया जाता है, जिससे कुल 1526 हजार  टन उत्पादन  प्राप्त होता है। बिहार की उत्पादकता  44.06 टन /हेक्टेयर है। राष्ट्रीय स्तर पर केला 880 हजार  हेक्टेयर क्षेत्रफल में उगाया जाता है, जिससे कुल 30,008 हजार टन उत्पादन प्राप्त होता है। केला की राष्ट्रीय उत्पादकता 34.10 टन /हेक्टेयर है।

फ्यूजारियम विल्ट (मुरझान) रोग का क्या महत्व है?
फ्यूजारियम मुरझान रोग या पनामा रोग मृदाजनित कवक रोग फ्यूजेरियम, आक्सीस्पोरम फा. स्पि. क्यूवेन्स है और भारत सहित  पूरे विश्व में अत्यंत विध्वंसकारी है। 
भारत के लगभग सभी वाणिज्यिक किस्मों को प्रभावित कर सकता है। यदि एक बार खेत रोगग्रस्त हो जाता है तो इसके रोगाणु मृदा में 35-40 वर्षो से अधिक समय तक जीवित रह सकते है और सम्पूर्ण पौधों के मृत्यु का कारण बन सकते हैं।
केला उत्पादन के लिए फ्यूजारियम विल्ट रोग एक गंभीर समस्या बन रही है और तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश, केरल, बिहार ओडिसा, पश्चिम बंगाल तथा उत्तर पूर्वी राज्यों में यह रोग बड़े पैमाने पर व्याप्त है। 
इस रोग के कारण बिहार की प्रमुख स्थानीय प्रजाति मालभोग लुप्तप्राय  होने की कगार पर है । 
भारी नुकसान के कारण प्रदेश के अनेक भागों के किसानों ने अन्य प्रकार की फसलों जैसे हल्दी, मक्का, गन्ना इत्यादि उगाने लग गए हैं।

रोगकारक (फ्यूजेरियम, आक्सीस्पोरम फा. स्पि. क्यूवेन्स)
फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम फा.स्पि. क्यूवेन्स की चार प्रभेद पायी जाती है। जो किसी प्रजाति विशेष को ही प्रभावित करती है शिवाय रेस -4 के ,जैसे

  • प्रभेद-I-सर्वाधिक रोगग्राही प्रजाति, सिल्क ग्रुप जैसे मालभोग एवं ग्रो मिशेल, कारपुरावाल्ली (पिसांग अवाक), विरूपाक्क्षी (पोम)
  • प्रभेद-II-सर्वाधिक रोगग्राही ब्लूगो जैसे, मोन्थन, कोठिया एवं अन्य सब्जी वाली प्रजातिया
  • प्रभेद-III-रोगग्राही हेलिकोनिया प्रजाति। यह प्रभेद अभी तक मध्य अमेरिका तक सीमित यह केला को प्रभावित नहीं करता है।
  • प्रभेद-IV-डवार्फ कवेन्डीश  प्रजातिया एवं प्रभेद-1 एवं प्रभेद-।। से प्रभावित होने वाली सभी प्रजातियाँ रोगग्राही है। कहने का तात्पर्य यह है की केला की सभी प्रजातियां इस रेस के प्रति रोग ग्राही है।पूरे विश्व में आज तक इस रोग का प्रभावी नियंत्रण नहीं खोजा जा सका है। इसे केला का कोविड -19 भी कह सकते है।

ट्रापिकल रेस 4 क्या है ?
फ्यूजारियम रेस 4 कवकीय फ्यूजेरियम, आक्सीस्पोरम फा. स्पि. क्यूवेन्स की ही एक नस्ल है जो केलों के कैवेनडिश समूह के केलों सहित सभी केलों को संक्रमित करती है। यह विशेष नस्ल जो वीसीजी 01213/16 नामक एक विशेष वानस्पतिक संगतता समूह (वेजीटेटिव कम्पाटेबिल्टी ग्रुप) से संबंधित है, भारत के उष्णकटिबंधीय तथा उपोष्ण कटिबंधीय दोनों ही क्षेत्रों में उगाए जाने वाले केलों के सभी किस्मों को संक्रमित कर सकती है।
फ्यूजारियम की यह नस्ल कैवेनडिश  समूह के केलों को भी संक्रमित कर सकती है, अतः भारतीय केला उद्योग को भारी नुकसान होने की संभावना है क्योंकि यह उद्योग मुख्यतः कैवेडिश क्लोनों (बसराय, रोबस्टा, हरिछाल, ग्रैंड नैने) पर निर्भर है जिन्हें केलों की खेती की कुल भूमि के 52% भूमि पर उगाया जाता है और कुल केला उत्पादन में इनका योगदान 64% है।

फ्यूजेरियम, आक्सीस्पोरम फा. स्पि. क्यूवेन्स  टीआर-4 : ग्लोबल परिदृश्य 
ताइवान, मलेशिया, इंडोनेशिया (जावा, सुमत्रा, सुलावेसी, हलमहेरा, बोरनियो द्वीप में कालीमंथन तथा न्यू गुयाना द्वीप के पपुआ क्षेत्र), मेनलैंड चाइना (गौंगडोंग, हयनन, गौंगक्सी, फ्यूजियन तथा यूनन्न), मिनडानव के फिलीपाइन द्वीप, आस्ट्रेलिया (उत्तरी क्षेत्र), ओमन, जार्डन तथा मोजम्बिक, लेबनान तथा पाकिस्तान, लाओस तथा वियतनाम के अलावा आस्ट्रेलिया के क्वीन्सलैंड से इस खतरनाक  नस्ल ट्रापिकल रेस 4 की सूचना मिली है और इससे गंभीर क्षति होती है।

फ्यूजेरियम, आक्सीस्पोरम फा. स्पि. क्यूवेन्स  टीआर-4 : राष्ट्रीय परिदृश्य  
डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय पूसा, समस्तीपुर एवं आईसीएआर-एनआरसीबी द्वारा अब तक किए गए सर्वेक्षण से सूचना मिली है कि बिहार राज्य के कटिहार एवं पूर्णिया जिलों, उत्तर प्रदेश  के फैजाबाद एवं बाराबंकी जिलों, गुजराज के सूरत जिले तथा मध्य प्रदेश के बुरहनपुर जिले में खतरनाक नस्ल ट्रापिकल रेस 4 की मौजूदगी है।

रोग के लक्षण: बाहरी लक्षण

  • बाहरी लक्षण रोपण के 4-5 माह बाद ही प्रकट होते हैं। तथापि रोगग्रस्त सकर रोपें जाते है तो रोग लक्षण रोपण के 2 माह बाद भी देखे जा सकते है।
  • प्रारम्भिक अवस्था में पुरानी पत्तियों का सीमांत क्षेत्र पीला पड़ जाता है और बाद में यह पीलापन मध्यशिरा (मिडरिब) की ओर बढ़ जाता है और अंततः सम्पूर्ण पत्ती पीली पड़ जाती है । पत्तियों का यह पीलापन ऊपर की पत्तियों की ओर बढ़ जाता है।
  • संक्रमित पत्तियों धीरे-धीरे डंठल या मध्यशिरा के मूल से आभासी तने की ओर झुक जाते हैं जिससे पौधे का आकार ’स्कर्ट’ जैसा दिखने लगता है।
  • नई पत्तियों में लक्षण अंत में दिखाई पड़ते हैं और ये प्रायःसीधे खड़ी रहती है जिससे पौधा ’स्पाइकी’ जैसा दिखने लगता है।
  • नई उभरती पत्तियों कांतिहीन एवं पत्तियों की लेमिना कम होती है और अंततः पत्तियों का उभरना बंद हो जाता है।
  • आभासी तने लम्बवत फट जाता है और संक्रमित पौधे की मृत्यु से पूर्व बगल में बड़ी संख्या में सकर निकल जाते है

रोग के लक्षण: आतंरिक लक्षण 
प्रकंद (कार्म) पर पीला, लाल या भूरी लडियां मौजूद होती है और आभासी तने में काले या भूरे या पीले रंग की लड़ियां होती है और कभी-कभी कवकों के कारण नाडियों के ऊतकें रंगविहीन होने से गुच्छे के डंठल पर भी लडियां आ जाती है।

पौधों में इस रोगाणु के प्रवेश और जीवित रहने की पद्धति
मृदा में मौजूद रोगाणु केले के पौधे को जड़ों के माध्यम से संक्रमित करते हैं, इसके बाद  प्रकंद के माध्यम से आभासी तने  में मौजूद नाड़ी तंत्र को और अंततः तने में जल और पोषक तत्वों के आवागमन को अवरूद्ध कर देते हैं । इससे पत्तिया पीली पड़ जाती है और पौधे की मृत्यु हो जाती है।
फ्यूजारियम रोगाणु दसको तक क्लेमीडोस्पोर्स के रूप में जीवित रह सकते हैं। एक बार खेत में प्रवेश कर जाने पर क्लेमीडोस्पोर्स के रूप में 40 वर्षो  से अधिक समय तक जीवित रह सकते हैं।
ये रोगाणु खरपतवारो पर जीवित रह सकते है जैसे, क्लोरिस इनफ्लाटा, क्लोरिस बरबाटा (परपल टाप क्लोरिस), कोम्मोलिना डिफ्यूजा, एनसेटे वेट्रीकोसम, यूफोरबिया हेटेरोफाइला, ट्राइडेक्स प्रोकम्बेंस तथा पैनीकम परप्यूरेसेंस को भी संक्रमित करते और उनमें जीवित रहते हैं।

रोग का प्रसार 
फ्यूजारियम रोगाणु संक्रमित सकर की आवा-जाही एवं रोपण से य पौधों के संदूशित भाग जैसे आभासी तना के ऊतक तथा संक्रमित पौधों की पत्तियों  के लाने या ले जाने से य कृषि उपकरणों, कैंटेयनर, औझार, पशु , जूते, कपड़ों में लगी मिट्टी तथा सक्रमित मृदा का अधःस्तर के रूप में उपयोग से य तेज आंधीय तेज हवाओं य भारी वर्षा  एवं  बाढ़ य सिंचाई जल य वर्षा  के बाद जल की निकासी से य रोगमुक्त क्षेत्र तथा रोगग्रस्त के बीच नदीय प्रवाह य खेत में पौधों के जड़ो से अन्य जड़ों से सम्पर्क य कीट वेक्टरों विषेशकर केलों के घुन जैसे,प्रकंद बेधक (कार्म बोरर) कास्मोपोलाइट्स सार्डीडस तथा तना बेधक (स्टेम बोरर) भी रोगाणु फैलाव में सम्मिलित हैं।

रोग का प्रबंधन
इस रोग का कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं खोजा जा सका है, इसे केवल प्रबंधित करके कुछ हद तक नियंत्रित किया जा सकता है,यथा

  • फ्यूजारियम विल्ट  रोग ट्रापिकल रेस 4 से संक्रमित खेत के प्रवेश स्थान पर साइन बोर्ड (खतरे के निशान के साथ लिखें कि टीआर 4 से सावधान एवं प्रतिबंधित प्रवेश ) लगाएं।
  • खेत के अंदर प्रतिबंधित प्रवेश हेतु विल्ट रोग संक्रमित पौधों  को रस्सी/रंगीन रिबन बांधकर चिन्हित करें।
  • संक्रमित पौधों को दो स्थानों पर ग्लाइफोसेट 2-5 मि. ली./ पौध की दर से सुई लगाना चाहिए (विशेष कर एक सुई पौधे के नीचे की ओर दुसरा जमीं के सतह से 2 फीट ऊपर)।
  • खरपतवारनाशी सुई लगायी गई पौधों की मृत्यु के पश्चात उन्हें तुरन्त जला देना चाहिए या अन्य पौधों की पैदावार निकालने तक इन्तजार किया जाना चाहिए।
  • संक्रमित पौधों को उखाड़कर खेत या सिंचाई चैनल में नहीं रखना चाहिए।
  • मुरझान रोग के संकेत मिलने के  तुरन्त बाद, कार्बेडाजिम (0.1 से 0.3% ) @ 3-5 ली./पौध  की दर से 15 दिनों के अंतराल पर 3-5 बार ड्रेसिंग करना तथा सभी पौधों (संक्रमित एवं असंक्रमित दोनों प्रकार के पौधों) के आभासी तने पर कार्बेडाजिम 0.1% का घोल @ 3 मि.ली. की दर से रोपण के तीसरे, पांचवें तथा सातवें माह में सुई लगाया जाना चाहिए।
  • साफ-सुथरा आवो और साफ-सुथरा जाओ की नीति (खेत में प्रवेश  करते समय पालीथीन  जूते या फुट कवर पहनें और खेत से निकलते समय इन्हें उतार दें और इन्हें पुनः उपयोग के लिए रख  लें ) का अनुसरण करें । खेत के प्रवेश  स्थान पर नीचे की ओर नल लगे दो ड्रम रखें । एक पानी रखने के लिए और दूसरा रोगाणुमुक्त करने वाले द्रव्य यथा  पालीडाइमिथाइल अमोनियम क्लोराइड 1%(@ 10 ग्रा. / लीटर पानी) के घोल में  उपयोग किए गए उपकरणों, हाथ, पांव पहले पानी से धोने के बाद  रोगाणुमुक्त करने वाले द्रव्य से धो लें।
  • पौधे एवं खेत को खरपतवार तथा पौध अवषेशों से मुक्त रखें।
  • पौधे को आभासी तने  के घुन के संक्रमण से बचाकर रखें (पौधे को ब्रस से झाड़िए इसके  बाद नीम का तेल या क्लोपैरीफोस 3 मि.ली./लीटर पानी का छिड़काव या आभासी तने  पर दो स्थानों पर ट्रियाजोफोस 2 मि.ली. की दर से सुई लगायें या बीवेरिया बास्सियाना युक्त सूडोस्टेम ट्रैप @ 20/एकड़ की दर से लगायें । प्रकंद घुन के प्रबंधन के लिए रोपण के तीसरे एवं पांचवे माह में पौधे के चारो ओर मृदा में फ्यूराडान 40 ग्रा. /पौधा का उपयोग करें। इससे पौधों को सुत्रक्रिमी  संक्रमण से भी सुरक्षा मिलेगी।
  • केला की फसल की कटाई के बाद पहली से डंठल निकाल कर मार्केटिंग करे जिससे रोग के फैलाव से बचा जा सकता है।
  • कटाई के पश्चात सम्पूर्ण पौधे को उखाड़कर वहीं जला दिया जाना चाहिए।
  • धान/गन्ना/साबूदाना/प्जाज /अनानास सहित एक या दो बार फसल चक्र (क्रॉप रोटेशन ) अपनायें तत्पश्चात 2-3 चक्र केलों का करें।

अगली फसल से पूर्व  

  • खेत को 1 से 3 माह तक जलमग्न रखें।
  • जैविक कीटाणु शोधन विधि का अनुसरण करें यानि 500 से 1000 कि.ग्रा./एकड़ धान या  मक्के के पुआल को बिछाकर खेत को 20 से 30 दिनों तक जलमग्न रखें।
  • खेत में सनये, ढैचा, मूंग,लोबिया लगायें और इसे 45-50 दिनों तक बढ़ने दें तत्पश्चात उसे वही पर  दबा कर जुताई कर दे।
  • ट्रैक्टर  के टायर तथा हल एवं अन्य उपकरणों का खेत से निकलने के पूर्व कीटाणुनाशक द्वारा करना आवश्यक है और इसी प्रकार खेत में प्रवेश करने से पूर्व भी। जहां तक सम्भव हो जुताई के लिए कामन ट्रैक्टर का उपयोग न करें।
  • सकर  के स्थान पर ऊतक सवंर्धित पौधों का उपयोग करें।
  • बायो-प्राइम्ड ऊतक संबर्धन द्वारा तैयार पौधों का उपयोग करें विषेशकर टीआर 4 से मुक्त क्षेत्रों में । 
  • यदि रोपण के लिए सकर का उपयोग किया जाता है तो इन्हें रोगमुक्त पौधों से लाना चाहिए और इन्हें छीलकर कार्बेडाजिम (0.2% के घोल) में 30-45 मिनट तक डुबोए रखें तत्पश्चात रोपण करें । 
  • सस्य विज्ञान की अच्छी पद्धतियों को अपनायें और इसी प्रकार उर्वरकों की संस्तुत खुराक (नाइट्रोजन को कम मात्रा में तथा पोटैशियम  को अधिक मात्रा में, केवल नाइट्रेट नाइट्रोजन को वरीयता दें, तथा अधिक मात्रा में जैविक खाद जैसे, वर्मीकम्पोस्ट, नीम केक, अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद (इसके लिए केलों के आभासी तने से तैयार वेर्मी कम्पोस्ट का उपयोग करे ), प्रभावकारी मैक्रोब्स के उपयोग से मृदा स्वास्थ्य में सुधार करें । 
  • मृदा में ट्राइकोडर्मा एस्पेरल्लम @ 100 ग्रा./पौधा की दर से या गुड़ आधारित द्रव्य फार्मूलेशन ट्राइकोडमा हर्जियानम बसिलस सेरियस @ 2 ली. /पौधा की दर से 3 बार (रोपण के दौरान तथा दूसरे एवं चैथे  माह में) उपयोग करें। यह पद्धति फ्यूजारियम मुरझान रोग के प्रति प्रभावकारी पायी गयी । 
  • टपक सिंचाई (ड्रिप इरीगेशन) फर्टीगेशन का अनुसरण करें।
  • संक्रमित खेत से जल को दूसरे खेत में न बहायें, ताकि रोग फैलाव से बचा जा सके।
  • बिहार के कोशी बेल्ट में जहा पर यह बिमारी आ चुकी है वहां पर केवल एक ही केला की फ़सल ले।
  • इस बिमारी के फैलाव को प्रभावी तरीके से रोके।