सल्फर के इस्तेमाल से बढ़ेगी तिलहनी फसलों की पैदावार, जानिए सल्फर की कमी, कमी के लक्षण और कार्य
सल्फर के इस्तेमाल से बढ़ेगी तिलहनी फसलों की पैदावार, जानिए सल्फर की कमी, कमी के लक्षण और कार्य
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तिलहनी फसलें भारतीय आहार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। भारत में सोयाबीन, सरसों, मूंगफली, तिल आदि मुख्य तिलहनी फसलें हैं तथा इसका उत्पादन देश में लगभग 37 मिलियन टन तक पहुंच चुका है। इन फसलों के लिए संतुलित उर्वरकों का प्रयोग आवश्यक है। इनमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश, सल्फर, जिंक व बोरॉन तत्व अति आवश्यक हैं। तिलहन को फसलों के उत्पादन के लिए सल्फर एक अत्यंत आवश्यक पोषक तत्व है। यह 0.06 प्रतिशत की औसत सांद्रता के साथ पृथ्वी की सतह में 13वां सबसे प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला तत्व है। यह प्रोटीन, तेल और विटामिन के संश्लेषण के लिए आवश्यक है।

कृषि भूमि में कार्बनिक रूप की तुलना में अकार्बनिक सल्फर की सांद्रता कम होती है। सल्फर की कमी से तिलहनी फसलों की गुणवत्ता और मात्रा में भी 40 प्रतिशत की कमी हो जाती है। सल्फर की कमी बहुत आम समस्या बनती जा रही है व भारत में 41 प्रतिशत से अधिक मृदा में सल्फर की कमी है।

सल्फर की कमी से अमीनो अम्ल का संचय होता है। ये नाइट्रोजन के अवशोषण और उपयोग को नियंत्रित करते हैं। कुल सल्फर में से, केवल 10 प्रतिशत सल्फर ही उपलब्ध रूप में है। यह मृदा से मृदा तक बदलता रहता है। ऑर्गेनिक सल्फर, पौधों के लिए उपलब्ध सल्फर का प्रमुख स्रोत है। फसलों में सल्फर की महत्वपूर्ण सीमा 10 पीपीएम है। इसके नीचे की मृदा में सल्फर की कमी बताई गई है।

गत वर्षों में संतुलित उर्वरकों के अन्तर्गत केवल नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश के उपयोग पर ही बल दिया गया है। सल्फर के उपयोग पर विशेष ध्यान न दिये जाने के कारण मृदा के नमूनों में 40 प्रतिशत सल्फर (सल्फर) की कमी पाई गई। आज उपयोग में आ रहे सल्फररहित उर्वरकों जैसे यूरिया, डीएपी, एनपीके तथा म्यूरेट ऑफ पोटाश का उपयोग किया जा रहा है। इससे सल्फर की कमी निरंतर बढ़ रही है।

सल्फर की कमी
  • भूमि में संतुलित उर्वरकों का प्रयोग न करना।
  • लगातार विभिन्न फसलों द्वारा सल्फर भूमि से लेते रहना व सल्फररहित उर्वरकों का प्रयोग करना।
  • ऐसे उर्वरकों का उपयोग, जिसमें बहुत कम या न के बराबर सल्फर होना।
  • जहां अकार्बनिक खाद प्रयोग में नहीं आती है, वहां पर भी सल्फर की कमी का होना।
  • हाल ही में विकसित की गई भूमि या हल्के गठन वाली बलुई मृदा में, जहां निक्षालन द्वारा पोषक तत्वों की हानि होती रहती है, वहां सल्फर की कमी पाई जा सकती है।
कमी के लक्षण
  • पौधों की पूर्ण रूप से सामान्य बढ़ोतरी नहीं हो पाती तथा जड़ों का विकास भी कम होता है।
  • पौधों की ऊपरी पत्तियों (नयी पत्तियों) का रंग हल्का फीका व आकार में छोटा हो जाता है। पत्तियों की धारियों का रंग तो हरा रहता है, परन्तु बीच का भाग पीला हो जाता है।
  • पत्तियां कप के आकार की हो जाती हैं। इसकी निचली सतह एवं तने लाल हो जाते हैं।
  • पत्तियों के पीलेपन की वजह से पादप आहार पूरा नहीं बन पाता। इससे उत्पादन में कमी आती है और तेल का प्रतिशत कम हो जाता है।
  • जड़ों की वृद्धि कम हो जाती है।
  • तने कड़े हो जाते हैं। कभी-कभी ये ज्यादा लम्बे व पतले हो जाते हैं।
  • फसल की गुणवत्ता में भी कमी आ जाती है।
भारत में सल्फर उर्वरकों की कम खपत के कारण तिलहन की उत्पादकता कम करती है। तिलहनों की सल्फर आवश्यकताएं कई सल्फरयुक्त सामग्रियों से पूरी की जा सकती हैं, जैसे जिप्सम, फॉस्फोजिप्सम, पाइराइट और सल्फेट आदि। इसे प्राथमिक पोषक तत्व उर्वरक जैसे-अमोनियम सल्फेट, एसएसपी, पोटेशियम सल्फेट आदि के साथ भी मिलाया जा सकता है।

सल्फर के कार्य
  • सल्फर, क्लोरोफिल का अवयव नहीं है फिर भी यह इसके निर्माण में सहायता करता है। यह पौधे के हरे भाग की अच्छी वृद्धि करता है।
  • यह सल्फरयुक्त अमीनो अम्ल, सिस्टाइन, सिस्टीन और मिथियोनीन तथा प्रोटीन संश्लेषण में आवश्यक है।
  • सरसों के पौधों की विशिष्ट गंध को यह प्रभावित करती है। तिलहनी फसलों के पोषण में सल्फर का विशेष महत्व है। बीजों में तेल बनने की प्रक्रिया में इस तत्व की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
  • सरसों के तेल में सल्फर के यौगिक पाये जाते हैं।
  • तिलहनी फसलों में तैलीय पदार्थ की मात्रा में वृद्धि करती है।
  • इसके प्रयोग से बीज बनने की प्रक्रियाओं में तेजी आती है।
सल्फर की कमी को दूर करने हेतु उपयोगी उर्वरक

उर्वरक - सिंगल सुपर फॉस्फेट
उपलब्ध सल्फर (प्रतिशत) - 12
प्रयोग विधि - बुआई के पूर्व बेसल ड्रेसिंग के रूप में

उर्वरक - पोटेशियम सल्फेट
उपलब्ध सल्फर (प्रतिशत) - 18
प्रयोग विधि - बुआई के पूर्व बेसल ड्रेसिंग के रूप में

उर्वरक - अमोनियम सल्फेट
उपलब्ध सल्फर (प्रतिशत) - 24
प्रयोग विधि - बुआई के पूर्व बेसल ड्रेसिंग के रूप में एवं खड़ी फसल में टॉप ड्रेसिंग के रूप में।

उर्वरक - जिप्सम (शुद्ध)
उपलब्ध सल्फर (प्रतिशत) - 18
प्रयोग विधि - भूमि की सतह पर उचित नमी की दशा में बुआई से 3-4 सप्ताह पूर्व प्रयोग करना चाहिए। यह ऊसर मृदा के लिए ज्यादा उपयुक्त है।

उर्वरक - पाइराइट
उपलब्ध सल्फर (प्रतिशत) - 22
प्रयोग विधि - मृदा की सतह पर उचित नमी की दशा में बुआई से 3-4 सप्ताह पूर्व प्रयोग करना चाहिए। यह ऊसर मृदा के लिए ज्यादा उपयुक्त है।

उर्वरक - जिंक सल्फेट
उपलब्ध सल्फर (प्रतिशत) - 18
प्रयोग विधि - यह जस्ते की कमी वाली भूमि के लिए उपयुक्त है। इसका प्रयोग बुआई के 3-4 सप्ताह पूर्व या खड़ी फसल में पर्णीय छिड़काव द्वारा करें।

उर्वरक - बेंटोनाइट
उपलब्ध सल्फर (प्रतिशत) - 90
प्रयोग विधि - मृदा की सतह पर उचित नमी की दशा में बुआई के समय प्रयोग करना चाहिए।

उर्वरक - तात्विक सल्फर
उपलब्ध सल्फर (प्रतिशत) - 95-100
प्रयोग विधि - जिस मृदा में वायु का संचार अच्छा हो तथा चिकनी मिट्टी (भारी मृदा) के लिए विशेष उपयुक्त है। बुआई के 3-4 सप्ताह पूर्व उचित नमी की दशा में प्रयोग करें।

स्त्रोत :- ICAR खेती
नेहा चौहान, प्रदीप कुमार**, नरेंद्र कुमार संख्यान**, पंकज सूद * और समीर कुमार **