जानिए पशु चारे के लिए अधिक उपज देने वाली नैपियर घास की उन्नत खेती
जानिए पशु चारे के लिए अधिक उपज देने वाली नैपियर घास की उन्नत खेती
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नैपियर घास चारे का अधिक उपज देने वाली बहुवर्षीय फसल है। एक बार खेत में रोपण करने के पश्चात यह लगभग 4-5 वर्षों तक हरा चारा प्रदान करती है। स्वादिष्ट और घनी ऊंचाई के कारण हाथी इसे चाव से खाना पसंद करते हैं व इसमें आसानी से छिप जाते हैं इसलिए इसे हाथी घास भी कहते हैं। यह दो प्रकार की होती है पहले प्रकार में पत्तियों और तने पर रोए और दूसरे प्रकार में तना चिकना और मुलायम होता है। पशु दूसरी प्रकार को नैपियर घास को स्वाद से खाना पसंद करते हैं। संकर नेपियर घास की पैदावार और पौष्टिकता सबसे अधिक होती है।

मिट्टी का चयन
नैपियर घास से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए उचित जल निकास वाली दोमट मृदा सर्वोत्तम रहती है।

खेत की तैयारी
सर्वप्रथम एक जुताई मृदा पलटने वाले हल से, तत्पश्चात एक-दो जुताई देसी हल से की जाती है। इसके उपरांत खेत में पाटा चलाकर समतल कर दिया जाता है। खाद की मात्रा खेत में रोपित करने के पश्चात 4-5 वर्षों तक नियमित रूप में हरे चारे की उपलब्धता सुनिश्चित हो जाती है। इसलिए खेत की उर्वराशक्ति में वृद्धि एवं अधिक चारा प्राप्त करने के लिए नैपियर रोपण से पूर्व 250-300 क्विंटल प्रति हैक्टर की दर से गोबर की खाद खेत में भलीभांति समान रूप से फैला देनी चाहिए। रोपाई अवधि में 50 कि.ग्रा. नाइट्रोजन और प्रत्येक कटाई उपरांत 500 कि.ग्रा. नाइट्रोजन डालना आवश्यक होता है। खेत में एक बार 50 कि.ग्रा. फॉस्फोरस और 50 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हैक्टर की दर से अवश्य डालनी चाहिए।

उन्नत किस्में
भा.कृ. अनु. प. - भारतीय चरागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान, झांसी में प्रमुख रूप से विकसित और देश के अन्य भागों के लिए संस्तुत उत्तम तथा उच्च उत्पादन क्षमता वाली प्रजातियों का विकास हुआ है। नैपियर घास की उन्नत किस्में निम्नलिखित हैं:
  • इगफ्री न-03,06 एवं 10
  • एन- बी. - 21
  • पूसा जाइंट
  • गजराज
बुआई का समय
नैपियर के जड़दार कल्लों को रोपित करने की अवधि फरवरी के दूसरे सप्ताह से जुलाई तक उपयुक्त मानी जाती है। सिंचाई की व्यवस्था न होने पर इसकी जड़ों को जून या जुलाई में मानसून के आरंभ में रोपित करना चाहिए। 

बीज की मात्रा
बीज के स्थान पर नैपियर की जड़ों या कल्लेदार तनों का रोपण किया जाता है। इसके लिए 20,000 टुकड़ों की प्रति हैक्टर आवश्यकता होती है। 

बुआई की विधि
नैपियर घास के रोपण के लिए इसकी जड़ों या तनों के टुकड़ों को लाइन से लाइन की दूरी 100 सें.मी. और पौधे से पौधे की दूरी 50 सें.मी. रखनी चाहिए। नैपियर के तनों के टुकड़ों को लगाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि टुकड़ों में 2 गांठ अवश्य हों एवं एक गांठ जमीन के अंदर तथा दूसरी गांठ जमीन के ऊपर रहे। 

सिंचाई
नैपियर की बुआई के उपरांत तुरन्त सिंचाई करें तथा दूसरी सिंचाई 6-7 दिनों बाद और गर्मियों में 10-14 दिनों के अंतराल पर करनी चाहिए। प्रत्येक कटाई के बाद सिंचाई अवश्य करनी चाहिए।

निराई-गुड़ाई
नैपियर घास रोपण के आरंभ में खरपतवारों की अधिकता रहती है। इसलिए प्रारंभिक अवस्था में पौधे के छोटे रहने पर निराई-गुड़ाई करके खरपतवारों को निकाल देना चाहिए। खरपतवार नियंत्रण के लिए एट्राजिन 3-4 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर 500-600 लीटर पानी में घोलकर छिड़कना चाहिए।

कटाई
हरे चारे के लिए नैपियर की पहली कटाई, रोपाई के 2 माह बाद करनी चाहिए। ग्रीष्म ऋतु में 40-45 दिनों के अंतराल पर और वर्षा ऋतु में 30-35 दिनों पर करनी चाहिए। हरे चारे की फसलों में उपलब्धता बहुत कम होने की स्थिति में पशुओं को हरा चारा नियमित आपूर्ति के लिए नैपियर घास दी जाती है। इसके लिए खाद व पानी का विशेष ध्यान रखना चाहिए।

उत्पादन
नैपियर घास से हरे चारे की उपज लगभग 1500-1800 क्विंटल प्रति हैक्टर प्रति वर्ष होती है।

बीज उत्पादन
नैपियर घास से बीज का उत्पादन प्रायः नहीं लिया जाता है। बीज उत्पादन के रूप में जड़ों एवं तनों को प्राप्त करने के लिए क्षेत्र विशेष में कम से कम 100 दिनों या इससे अधिक समय तक कोई कटाई नहीं ली जाती है। इससे पौधों के तने सख्त हो जाते हैं और प्रति पौधे से अधिक से अधिक टुकड़े रोपण योग्य प्राप्त हो जाते हैं। बीज की मात्रा तनों की लंबाई तथा प्रति पौधा कल्लों की संख्या पर निर्भर करते हैं।
नैपियर घास के रोपण हेतु बीज जड़ों को प्राप्त करने एवं तकनीकी जानकारी प्राप्त करने के लिए कृषि विज्ञान केंद्र (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली) दीन दयाल शोध संस्थान गनीवा चित्रकूट- 210206 (उत्तर प्रदेश) के शैक्षणिक प्रक्षेत्र में स्थित हरा चारा उत्पादन प्रदर्शन इकाई का अवलोकन किया जा सकता है। पशुओं के लिए वर्षभर हरे चारे की उपलब्धता सुनिश्चित करने, जरूरत के दिनों के लिए नैपियर घास के महत्व एवं उपयोगिता की जानकारी भी विस्तार से प्राप्त की जा सकती है। इसके लाभ से अवगत होकर अनेक पशुपालक इसका भरपूर उत्पादन प्राप्त करके पशुओं के वृद्धि-विकास, जनन-प्रजनन, स्वास्थ्य व उत्पादन के लिए खिला रहे हैं। पौष्टिक और स्वादिष्ट होने के कारण इसका प्रभाव पशुओं पर स्पष्ट परिलक्षित होता है।