सोयाबीन के उत्पादन पर असर डालती है ये बीमारियां, जानिए सोयाबीन रोग प्रबंधन के बारे में
सोयाबीन के उत्पादन पर असर डालती है ये बीमारियां, जानिए सोयाबीन रोग प्रबंधन के बारे में
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सोयाबीन, भारत की महत्वपूर्ण तिलहनी फसल है। यह खरीफ के मौसम में उगायी जाती है। वर्तमान समय में मौसम के बदलते परिवेश व अन्य प्रतिकूल परिस्थितियों से सोयाबीन की खेती में विभिन्न रोगों का प्रकोप देखा जा रहा है। इस लेख में सोयाबीन में लगने वाले प्रमुख रोगों का संक्षिप्त वर्णन व प्रबंधन बताया जा रहा है, जो कि इसके सफलतम उत्पादन के लिए नितांत आवश्यक है।

पर्णीय झुलसा
पर्णीय झुलसा, मृदाजनित रोग है। यह राइजोक्टोनिया सोलेनाई नामक कवक से होता है।


लक्षण
  • सर्वप्रथम पर्णदाग पनीले धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं, जो कि बाद में भूरे या काले रंग में परिवर्तित हो जाते हैं। इससे संपूर्ण पत्तियाँ झुलस जाती हैं। नमी की अधिकता में पत्तिया ऐसे प्रतीत होती है, जैसे पानी में उबाली गई हो।
  • रोगग्रस्त भागों पर नमी की उपस्थिति में सफेद माइसिलियम व भूरे रंग की संरचनाएं (स्क्लेरोशिया) दिखाई देती हैं।
  • अनुकूल परिस्थितियां घनी बोयी गयी फसल, लगातार वर्षा तथा खराब जल निकास की व्यवस्था आदि।
प्रबंधन
  • कार्बोक्सिन 37.5 प्रतिशत + थीरम 37.45 प्रतिशत, 2-3 ग्राम दवा प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार फसल को प्रारंभिक अवस्था में रोगग्रस्त होने से बचाता है।
  • उचित जल निकास व अनुशंसित दूरी पर बुआई करें।
  • रोग प्रतिरोधक, सहनशील व नई उन्न प्रजातियों जैसे-जे. एस. 20-34, जे. एस. 20-69, जे.एस. 20-98, आर.वी.एस. 2001 - 4, एन.आर.सी. 86 आदि का प्रयोग करें।
  • उचित फसलचक्र अपनायें।
  • मृदा में आवश्यक मुख्य तथा सूक्ष्म पोषक तत्वों का संतुलन बनाए रखें। ट्राइकोडर्मा हर्जियानम 10 कि.ग्रा./हैक्टर की दर से बुआई के समय खेत में पर्याप्त नमी होने की स्थिति में अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद में मिलाकर डालें।

पर्णीय धब्बा रोग
यह रोग पिछले वर्ष के फसल अवशेष व संक्रमित बीज से फैलता है। अधिक वर्षा एवं गर्म नम मौसम इस रोग के फैलाव के लिए अनुकूल होते हैं।


मायरोथीसियम पर्ण दाग
रोगजनक 
मायरोथीसियम रोरिडम

लक्षण
पत्तियों पर छोटे, गोल से अण्डाकार धब्बे, जो कि किनारों पर गहरे भूरे बैंगनी रंग के होते हैं। रोग के लक्षण तना एवं फली पर भी दिखाई देते हैं। बाद में ये धब्बे आपस में मिलकर अनियमित आकार के बड़े धब्बे बनाते हैं। इन धब्बों में फफूंद के गहरे मटमैले रंग के फलनकाय बन जाते हैं।

एंथ्रेक्नोज एवं फली झुलसन
यह बीजजनित रोग है, जो कि कोलेटोट्राइकाम ट्रंकेटम नामक फफूंद से फैलता है।


लक्षण
  • इसका प्रकोप सोयाबीन की प्रारंभिक अवस्था से फली पकने तक होता है।
  • पत्ती, तना तथा फलियों पर अनियमित भूरे काले छोटे से बड़े आकार के धब्बे दिखाई देते हैं। रोग की उग्र अवस्था में पौधे के सक्रमित भागों पर फफूंद के काले रंग के फलनकाय (एसरबुलाई) दिखाई देते हैं।
  • नई फलियों पर रोगजनक का आक्रमण होने पर फफूंद मर जाती है। 

अनुकूल परिस्थितियां
लंबे समय तक गर्म एवं नम मौसम रोग के फैलने के लिए अनुकूल होता है। जल्दी पकने वाली किस्मों पर रोग का प्रकोप प्रायः अधिक देखा गया है।

प्रबंधन
  • स्वस्थ एवं प्रमाणित बीजों का उपयोग करें।
  • बीजोपचार के लिए कार्बोक्सिन 37.5 प्रतिशत + थीरम 37.5 प्रतिशत, 2-3 ग्राम दवा का प्रति कि.ग्रा. बीज अथवा थायोफिनेट मेथाइल 450 + पाइराक्लास्ट्रॉबिन 50 दवा 1.5-2 मि.ली. का प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से प्रयोग करें।
  • खड़ी फसल में रोग के नियंत्रण के लिए टेबुकोनाजोल 25.9 प्रतिशत ई.सी. की 625 मि.ली./हैक्टर या टेबुकोनाजोल 10 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. + सल्फर 65 प्रतिशत डब्ल्यू. जी. 1250 ग्राम दवा/हैक्टर का 15 दिनों के अंतराल पर आवश्यकता पड़ने पर छिड़काव करें। सोयाबीन की फलिया परिपक्व होने पर तुरन्त कटाई कर लें।

चारकोल सड़न
यह मृदा व बीजजनित रोग है, जो कि मैकोफोमिना फेसियोलिना नामक फफूंद से होता है। खासतौर पर सितंबर में लंबे अंतराल का सूखा व तापमान में बढ़ोतरी होने पर यह रोग बहुत तेजी से फसल को नुकसान करता है।


लक्षण
  • रोग के लक्षण सामान्यत: फसल पर बाद की अवस्था (प्रजनक अवस्था) में दिखाई देते हैं।
  • गर्म एवं शुष्क मौसम में पत्तियां हल्की हरी से पीली होकर मुरझा जाती हैं, परंतु पौधे से लगी रहती हैं व धीरे-धीरे पौधे मर जाते हैं।
  • यदि तनों के ऊपर की छाल को अलग करके देखें, तो काले रंग की अतिसूक्ष्म स्क्लेरोशिया दिखाई देती है। इसकी वजह से संक्रमित ऊतक मटमैले काले रंग के दिखते देते हैं।
अनुकूल परिस्थितियां
अत्यधिक पौध संख्या, अधिक मृदा कठोरता, फसल की प्रारंभिक अवस्था में ज्यादा मृदा नमी एवं पोषक तत्वों की मृदा में कमी होने पर रोग की आशंका अधिक होती है।

प्रबंधन
  • बुआई के लिए रोग प्रतिरोधक या सहनशील प्रजातियों जैसे- जे.एस. 20-34, जे.एस. 20-69. जे.एस. 20-98, आर.वी.एस. 2001-4, एन.आर.सी. 86 इत्यादि का चयन करें।
  • बीजोपचार के लिए कार्बोक्सिन 37.5 प्रतिशत + थीरम . 37.5 प्रतिशत, 2-3 ग्राम दवा या थायोफिनेट मेथाइल 450 + पाइराक्लास्ट्रॉबिन 50 दवा 1.5-2 मि.ली. का प्रति कि.ग्रा. बीज या ट्राइकोडर्मा हर्जियानम 5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से प्रयोग करें। चारकोल सड़न से ग्रसित खेतों में बुआई से पूर्व 8-10 कि.ग्रा. ट्राइकोडर्मा हर्जियानम को प्रति हैक्टर की दर स अच्छी तरह मिला दें।
  • उचित फसलचक्र अपनायें।
  • मृदा में कार्बनिक पदार्थ का अधिक प्रयोग करें।
  • प्रजनक अवस्था पर पानी की कमी होने पर खेत में सिंचाई करें।
  • चारकोल जड़ सड़न एवं झुलसा जैसे रोगों के नियंत्रण के लिए गर्मी में गहरी जुलाई करें।