किसान भाई छप्पन कद्दू की खेती से कमा सकते है अच्छा मुनाफा, और बढ़ाएं अपनी आमदनी
किसान भाई छप्पन कद्दू की खेती से कमा सकते है अच्छा मुनाफा, और बढ़ाएं अपनी आमदनी
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छप्पन कद्दू कद्दूवर्गीय कुल की एक महत्वपूर्ण सब्जी फसल है। इसका पौधा छोटा होता है। इसके फलों में लगभग सभी प्रकार के विटामिन एवं खनिज तत्व पायें जाते है। जिनमें मुख्य रूप से विटामिन-ए ( 211 मिग्रा), विटामिन- सी (20.9 मिग्रा) तथा पोटैशियम (319 मिग्रा) एवं फास्फोरस (52 मिग्रा) प्रति 100 ग्राम फल से मिल जाता है। फसल बोने के 50–55 दिन बाद ही प्रथम तुड़ाई शुरू हो जाती है तथा लगातार 70 दिन तक फल मिलता रहता है। इसलिए इसकी खेती से अच्छा लाभ प्राप्त कर सकते है ।

उचित लाभ कैसे प्राप्त करें ?
  • छप्पन कद्दू की खेती से उचित लाभ प्राप्त करने के लिए निर्धारित वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करें।
  • बाजार, निर्यात की सम्भावनायें, सरकारी मदद, बीज तथा तकनीकी विधि आदि की उचित जानकारी खेती शुरू करने से पहले प्राप्त कर लें।
  • सभी किसान अपने क्षेत्र में छप्पन कद्दू की खेती के बारे में अन्य फसलों के साथ लाभ का तुलनात्मक विश्लेषण कर लें।
छप्पन कद्दू की खेती की योजनायें

अधिक उपज तथा गुणवता के फलों का उत्पादन के लिए निम्नलिखित बातों पर अवश्य ध्यान देना चाहिए-

प्रक्षेत्र का चुनाव
  • जीवांशयुक्त, अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट भूमि का चुनाव करें।
  • जिस भूमि का पीएच मान 6.5-7.5 के बीच हो, इनकी खेती के लिए सर्वोत्तम है ।
  • ऐसी जमीन का चुनाव करें, जिसका दक्षिणी पूर्वी अथवा दक्षिणी पश्चिमी भाग सूर्य की तरफ झुका हो, क्योंकि उत्तरी पूर्वी अथवा उत्तरी पश्चिमी झुकाव के अपेक्षा उपरोक्त झुकाव वाली जमीन जल्दी गर्म होती है। सनई अथवा ढ़ेंचा का प्रयोग हरी खाद के रूप में करें तथा बुआई के लगभग 30 दिन पहले अवश्य पलट दें ।
तापमान
  • मध्य तापमान जलवायु वाले क्षेत्र इसकी खेती के लिए अच्छी होती है।
  • बीज जमाव के लिए 24-28° सेल्शियस तापक्रम अच्छा होता है।
  • 18-27° सेल्शियस तापमान पौधों के बढ़वार के लिये अच्छा होता है।
भूमि की तैयारी

भूमि की जुताई उचित ओट आने पर अच्छी तरह से तैयार करने के लिए 4-5 बार गहरी जुताई करके पाटा चलाना चाहिए। अच्छी तरह से तैयार खेत में निश्चित दूरी पर बेड बना लेते है।

फसल चक्र

खीरा, खरबूजा, कद्दू, लौकी तथा तरबूज की फसल लेने के तुरन्त बाद उस खेत में छप्पन कद्दू न लगायें। इन कद्दूवर्गीय पौधों में लगने वाले कीटों तथा रोगों का प्रकोप छप्पन कद्दू में हो सकता है। जिससे पूर्ण फसल नष्ट हो सकती है। खाद्यान्न फसलों के साथ फसल चक्र अपनाना चाहिए। जिस फसल में एट्राजीन खरपतवार का प्रयोग हो उसमें उसके बाद छप्पन कद्दू लगायें। फसल चक्र में हरी खाद वाली फसल को अवश्य ध्यान दे।

संस्तुत किस्म

काशी सुभांगी (वी. आर. एस. एस. -06-12 ) – इस प्रजाति - का विकास वरण के द्वारा किया गया है। जिसके पौधे 35-45 सेन्टीमीटर लम्बे, पत्तिया हरी तथा सिल्वरी धब्बे युक्त होती है। कच्चे फल का रंग हरा, आकार लम्बा, बेलनाकार तथा फल पर हल्की 7-8 धारिया एवं वजन 800-900 ग्राम होता है। फल की लम्बाई 68-75 सेमी तथा गोलाई 21-24 सेमी होती है। इस प्रजाति में औसतन 8-10 फल प्रति पौधे लगते है। इस प्रजाति की खेती करके किसान भाई 325-350 कुन्तल / हेक्टेयर उपज प्राप्त कर सकते है।

बीज की बुआई

बीज की मात्रा एवं उपचार

प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में लगभग 7000-7500 पौधें होने चाहिए। 3.5-4.5 किग्रा प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है। बीज को बुवाई से पहले फफुदी नाशक दवा जैसे- 2.5 ग्राम कैप्टान या 3.0 ग्राम थिरम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए।

बुआई का समय

पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस फसल की बुआई सितम्बर माह के द्वितीय पखवाड़े से लेकर नवम्बर के प्रथम पखवाड़े तक करना चाहिए। यदि लो टनेल की सुविधा हो तो दिसम्बर महीने में भी बुआई की जा सकती है।

दूरी तथा बुआई की विधि
  • बीज की बुआई 1.25-2.5 सेन्टी मीटर गहराई पर करना चाहिए।
  • एक स्थान पर 2–3 बीज की बुवाई करने चाहिये। 
  • पंक्ति से पंक्ति की दूरी 1.50 मीटर तथा पौधे से पौधे की दूरी 80 सेमी रखते हैं।
उर्वरक एवं प्रयोग

मिट्टी की जाँच करें

जिस भूमि में छप्पन कद्दू लगाना हो कृपया उसकी मिट्टी के नमुने की जाँच करवा लें। मिट्टी के जाँच के लिए अपने शहर की मिट्टी प्रयोगशाला में सम्पर्क करें। मिट्टी के नमुने की जाँच में पी. एच. मान नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटैशियम, कैल्शियम तथा मैग्नेशियम की जाँच आवश्य करवायें। उर्वरक की मात्रा का निर्धारण जाँच परिणाम के आधार पर ही करना चाहिए ।

उर्वरक प्रबन्ध

100 किग्रा नत्रजन (175 किलो ग्राम युरिया एवं शेष मात्रा डी.ए.पी. से), 50 किलो ग्राम फास्फोरस (110 किलो ग्राम डीएपी) और 60 किलो ग्राम पोटाश (100 किलो ग्राम म्यूरेटा पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा बुवाई के समय देना चाहिए। शेष नत्रजन की आधी मात्रा बुवाई के 20वें एवं 35वें दिन बाद पौधों की जड़ों के पास देकर मिट्टी चढ़ा देना चाहिए।

विरलीकरण (थिनिंग)
  • जब पौधें लगभग 10 सेमी ऊँचाई के हो जाय तथा कद्दू के लाल कीट का डर न रह जाय तो अतिरिक्त पौधो को निकाल कर एक स्थान पर एक या दो पौधा रहने दे।
  • पौधों को उखाड़ने के बजाय पिंचिंग अथवा काट देते है जिससे दूसरे पौधो को कोई हानि नहीं होती है। 
  • प्रति हेक्टेयर 7000-7500 पौधे की संख्या बनाये रखना चाहिए ।
खरपतवार नियंत्रण
  • निकाई गुड़ाई या खरपतवार नाशी का प्रयोग करके खरपतवार का नियंत्रण करते है। 
  • निकाई गुड़ाई हमेशा 5 सेन्टी मीटर की गहराई तक करते है।
  • यदि खरपतवार का नियंत्रण निकाई गुड़ाई से सम्भव न हो तो खरपतवार नाशी का प्रयोग करना चाहिए।
  • रासायनिक खरपतवार नाशी के रूप में व्यूटाक्लोर रसायन 2 किलो / हेक्टेयर की दर से बीज बुआई के तुरंत बाद छिड़काव करते है।
  • खरपतवार निकालने के साथ-साथ खेत की 2-3 गुड़ाई करके जड़ों के पास मिट्टी चढ़ाते है जिससे पौधों का विकास तेजी से होता है।
सिंचाई

यदि खेत में उपयुक्त नमी न हो तो बुवाई के समय नाली में हल्का पानी लगा देना चाहिए जिससे बीज का जमाव अच्छी तरह से हो जाता है। इसके बाद आवश्यकतानुसार 10-15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए। कम पानी एवं अच्छी पैदावार के लिए टपक सिचाई प्रणाली का उपयोग करना चाहिए ।

पुष्पन और परागण
  • छप्पन कद्दू में मोनोशियस प्रकार के फूल लगते है। 
  • पुष्पन के समय खेत में मधुमक्खी की संख्या कम नहीं होना चाहिए । पुष्पन के समय प्रति हेक्टेयर लगभग 75000-125000 मधुमक्खियाँ खेत में रहनी चाहिए (3-5 कालोनी)।
  • सामान्य परागण एवं फल लगने के लिए लगभग एक पुष्प पर 8-10 बार मधुमक्खियों का भ्रमण आवश्यक होता हैं।
  • पुष्पन के समय कीड़े मारने वाली दवा मुख्य रूप से सायपरमेथरिन का प्रयोग न करे। इससे मधुमक्खियों के भ्रमण पर बुरा असर पड़ता है।
  • यदि कीटनाशक का प्रयोग आवश्यक हो तो देर शाम प्रयोग करें।
  • यदि अच्छी तरह से परागण नहीं होता तो फलों का आकार बिगड़ जाता है।
तुड़ाई एवं उपज

फल कोमल एवं मुलायम अवस्था में तोड़ना चाहिए। फलों की तुड़ाई 2-3 दिनों के अन्तराल पर करते रहना चाहिए। छप्पन कद्दू की औसत उपज 325-350 कु./ हे. होती है। इसकी खेती को वैज्ञानिक पद्धति से किया जाय तो लागत: लाभ अनुपात 1:3 का होता है।