बलिया जिला भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ मंडल के अन्तर्गत आता है, बलिया जिला उत्तर प्रदेश का सबसे पूर्वी जिला है, जिसका मुख्यालय बलिया शहर है। बलिया जिले की उत्तरी और दक्षिणी सीमा क्रमशः सरयू और गंगा नदियों द्वारा बनाई जाती है।
बलिया नगर , जनपद मुख्यालय, महर्षि भृगु के जन्म स्थान के रूप में जाना जाता है। बलिया जनपद में बोली जानी वाली भाषाएँ हिन्दी व भोजपुरी हैं, जो कि हिन्दी का ही एक रूप है। बलिया जनपद का मुख्यालय है और इस जनपद की सबसे बड़ा व्यापारिक केंद्र भी। रसड़ा यहाँ का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक केंद्र है। यहाँ पाया जाने वाला सबसे प्रमुख खनिज यहाँ की मिट्टी है। बलिया की मिट्टी औद्योगिक दृष्टिकोण से बहुत महत्त्वपूर्ण है। बलिया का मुख्य उद्योग बिंदी निर्माण है। यह उत्पाद न केवल उत्तर प्रदेश, वरन देश के अन्य भागों में भी भेजा जाता है। यह उद्योग जनपद के लिए आय उपार्जन का एक बहुत बड़ा स्रोत है।
ओडीओपी (वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट) योजना के तहत जिले में दाल उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए इस योजना के अंतर्गत मसूर को चयनित किया गया।
उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश व बिहार में मुखय रूप से मसूर की खेती की जाती है। इसके अलावा बिहार के ताल क्षेत्रों में भी मसूर की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। चना तथा मटर की अपेक्षा मसूर कम तापक्रम, सूखा एवं नमी के प्रति अधिक सहनशील है।दलहनी वर्ग में मसूर सबसे प्राचीनतम एवं महत्वपूर्ण फसल है। प्रचलित दालों में सर्वाधिक पौष्टिक होने के साथ-साथ इस दाल को खाने से पेट के विकार समाप्त हो जाते है यानि सेहत के लिए फायदेमंद है। मसूर के 100 ग्राम दाने में औसतन 25 ग्राम प्रोटीन, 1.3 ग्राम वसा, 60.8 ग्रा. कार्बोहाइड्रेट, 3.2 ग्रा. रेशा, 68 मिग्रा. कैल्शियम, 7 मिग्रा. लोहा, 0.21 मिग्रा राइबोफ्लोविन, 0.51 मिग्रा. थाइमिन तथा 4.8 मिग्रा. नियासिन पाया जाता है अर्थात मानव जीवन के लिए आवश्यक बहुत से खनिज लवण और विटामिन्स से यह परिपूर्ण दाल है। रोगियों के लिए मसूर की दाल अत्यन्त लाभप्रद मानी जाती है क्योकि यह अत्यंत पाचक है। दाल के अलावा मसूर का उपयोग विविध नमकीन और मिठाईयाँ बनाने में भी किया जाता है। इसका हरा व सूखा चारा जानवरों के लिए स्वादिष्ट व पौष्टिक होता है। दलहनी फसल होने के कारण इसकी जड़ों में गाँठे पाई जाती हैं, जिनमें उपस्थित सूक्ष्म जीवाणु वायुमण्डल की स्वतन्त्र नाइट्रोजन का स्थिरीकरण भूमि में करते है जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। अतः फसल चक्र में इसे शामिल करने से दूसरी फसलों के पोषक तत्वों की भी कुछ प्रतिपूर्ति करती है। इसके अलावा भूमि क्षरण को रोकने के लिए मसूर को आवरण फसल के रूप में भी उगाया जाता है। मसूर की खेती कम वर्षा और विपरीत परस्थितिओं वाली जलवायु में भी सफलतापूर्वक की जा सकती है।