जीरा की खेती भारत के प्रमुख मसाला फसलों में से एक है, जिसकी खेती मुख्यतः राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और पंजाब के कुछ हिस्सों में बड़े पैमाने पर की जाती है। जीरा न केवल भारतीय व्यंजनों में स्वाद और खुशबू के लिए प्रयोग किया जाता है, बल्कि इसके औषधीय गुणों के कारण भी इसकी मांग निरंतर बनी रहती है। इसकी खेती किसानों को अच्छा आर्थिक लाभ देती है, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहाँ जलवायु और मिट्टी इसके अनुकूल हो। जीरा एक शुष्क और अर्ध-शुष्क जलवायु में उगाई जाने वाली फसल है, जिसे ठंडी रातें और हल्की गर्म दिन की आवश्यकता होती है। यह फसल 10 से 25 डिग्री सेल्सियस तापमान में अच्छी तरह विकसित होती है। अत्यधिक ठंड या ओलावृष्टि जीरे की फसल को नुकसान पहुंचा सकती है, इसलिए जलवायु का चयन करते समय सतर्क रहना आवश्यक है।
जीरे की खेती के लिए जरूरी मिट्टी, बुवाई और सिंचाई की जानकारी
जीरे की खेती के लिए हल्की, दोमट या बलुई दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी जाती है, जिसमें जल निकासी की सुविधा अच्छी हो। मिट्टी का pH मान 6.5 से 8.0 के बीच होना चाहिए। जलभराव वाली मिट्टी में जीरे की जड़ें सड़ सकती हैं जिससे उत्पादन में भारी कमी आ सकती है। खेत की तैयारी करते समय मिट्टी को भुरभुरी और समतल बनाना आवश्यक होता है ताकि बीजों का अंकुरण समान रूप से हो सके। खेत को 2-3 बार जुताई करके पाटा चलाना चाहिए और अंतिम जुताई के समय अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद को मिट्टी में मिला देना चाहिए जिससे मिट्टी में जैविक तत्वों की पूर्ति हो सके।
जीरा की खेती कब और कैसे की जाती है ? जीरे की बुवाई का उपयुक्त समय सामान्यतः नवंबर के मध्य से दिसंबर की शुरुआत तक होता है। अधिक तापमान या देर से बुवाई करने पर पौधों की वृद्धि प्रभावित होती है और उपज कम हो सकती है। बीज की बुवाई से पहले उन्हें रोगों से बचाने के लिए ट्राइकोडर्मा या कार्बेन्डाजिम जैसे फफूंदनाशकों से उपचारित किया जाता है। प्रति हेक्टेयर 10 से 12 किलोग्राम बीज पर्याप्त होते हैं। बुवाई के लिए कतारों का चयन किया जाता है और कतारों की दूरी लगभग 25 से 30 सेंटीमीटर तथा बीजों की गहराई 1.5 से 2 सेंटीमीटर होनी चाहिए। बुवाई के तुरंत बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए ताकि बीजों का अच्छा अंकुरण हो सके।
जीरे की फसल को सिंचाई की आवश्यकता कम होती है लेकिन समय पर सिंचाई करने से उपज में वृद्धि होती है। पहली सिंचाई बुवाई के 20 से 25 दिन बाद की जाती है और इसके बाद जरूरत के अनुसार 15 से 20 दिन के अंतराल पर सिंचाई की जाती है। फूल आने और दाना बनने की अवस्था में सिंचाई विशेष रूप से लाभकारी होती है। हालांकि अत्यधिक सिंचाई से बचना चाहिए क्योंकि इससे फफूंदजनित रोगों का खतरा बढ़ जाता है। खरपतवार नियंत्रण भी जीरे की खेती में एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। समय-समय पर खेत की निराई-गुड़ाई करनी चाहिए ताकि खरपतवारों की संख्या कम रहे और पौधों को आवश्यक पोषण मिल सके।
जीरे की खेती में संतुलित खाद और उर्वरकों का प्रयोग करना अत्यंत आवश्यक है। खेत की तैयारी के समय 20 से 25 टन गोबर की खाद मिलाने के अलावा रासायनिक उर्वरकों में 60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30 किलोग्राम फास्फोरस और 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए। नाइट्रोजन को दो भागों में बांटकर देना चाहिए – एक भाग बुवाई के समय और दूसरा भाग फूल आने की अवस्था में। इससे पौधों को आवश्यक पोषण समय पर प्राप्त होता है और उपज में वृद्धि होती है।
जीरे की फसल में रोगों और कीटों का प्रकोप भी देखने को मिलता है। प्रमुख रोगों में विल्ट, ब्लाइट और पाउडरी मिल्ड्यू शामिल हैं। इनसे बचाव के लिए रोग प्रतिरोधक किस्मों का चयन करना और समय पर फफूंदनाशकों का छिड़काव करना चाहिए। कीटों में एफिड्स और थ्रिप्स जैसे कीट फसल को नुकसान पहुंचा सकते हैं। इनके नियंत्रण के लिए जैविक या रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है। रोग और कीट प्रबंधन में लापरवाही करने पर फसल की गुणवत्ता और मात्रा दोनों प्रभावित हो सकती हैं।
जीरे की उपज बढ़ाने के बाद की सावधानियाँ
जीरे की फसल आमतौर पर 100 से 120 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। जब पौधे पीले पड़ने लगें और दाने पूरी तरह विकसित हो जाएं, तब फसल की कटाई की जाती है। कटाई के बाद फसल को 3 से 5 दिन तक धूप में अच्छी तरह सुखाया जाता है ताकि नमी पूरी तरह निकल जाए और बीजों को भंडारण के लिए तैयार किया जा सके। इसके बाद मड़ाई करके बीज अलग किए जाते हैं। जीरे की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए मौसम की स्थिति, रोग नियंत्रण, खाद प्रबंधन और सिंचाई का विशेष ध्यान रखना आवश्यक होता है। औसतन एक हेक्टेयर भूमि से 8 से 12 क्विंटल तक उपज प्राप्त की जा सकती है, जो अच्छे प्रबंधन में और भी अधिक हो सकती है।
भंडारण करते समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि जीरे के बीज पूरी तरह सूखे हों और उनमें नमी न हो। नमी रहित, ठंडी और साफ जगह पर ही बीजों को संग्रहित करना चाहिए ताकि उनमें फफूंद या कीटों का प्रकोप न हो सके। जीरा एक ऐसी फसल है जिसकी बाजार में लगातार मांग बनी रहती है, चाहे घरेलू उपभोग हो या निर्यात। इसके दानों का प्रयोग मसाले, दवा, तेल और सौंदर्य प्रसाधनों तक में होता है। इसके बहुआयामी उपयोग इसे किसानों के लिए एक लाभकारी फसल बनाते हैं। विशेष रूप से सूखे या कम पानी वाले क्षेत्रों में यह फसल बहुत अच्छी कमाई का स्रोत बन सकती है। उचित तकनीकी जानकारी, समय पर कार्यान्वयन और नियमित निगरानी के माध्यम से किसान जीरे की खेती से अच्छा लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs):
प्रश्न 1: जीरे की खेती के लिए सबसे उपयुक्त जलवायु कौन-सी है?
उत्तर: शुष्क और अर्ध-शुष्क जलवायु जिसमें रातें ठंडी और दिन हल्के गर्म हों। 10°C से 25°C तक का तापमान उपयुक्त होता है।
प्रश्न 2: जीरे की बुवाई का सही समय क्या है?
उत्तर: नवंबर के मध्य से दिसंबर की शुरुआत तक बुवाई करना सबसे उपयुक्त होता है।
प्रश्न 3: जीरे की फसल में कौन-कौन सी प्रमुख किस्में प्रयोग की जाती हैं?
उत्तर: RZ-19, GC-1, RZ-223 जैसी किस्में अधिक उपज और रोग प्रतिरोधक क्षमता के लिए लोकप्रिय हैं।
प्रश्न 4: एक हेक्टेयर के लिए बीज की मात्रा कितनी होनी चाहिए?
उत्तर: सामान्यतः 10 से 12 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है।
प्रश्न 5: जीरे की फसल को कितनी बार सिंचाई की आवश्यकता होती है?
उत्तर: पहली सिंचाई बुवाई के 20–25 दिन बाद और उसके बाद हर 15–20 दिन में आवश्यकता अनुसार सिंचाई करनी चाहिए।
प्रश्न 6: फसल में रोगों से कैसे बचा जा सकता है?
उत्तर: रोग प्रतिरोधक किस्में चुनें और समय-समय पर फफूंदनाशकों का छिड़काव करें।
प्रश्न 7: कटाई कब करनी चाहिए?
उत्तर: जब पौधे पीले पड़ने लगें और दाने पूरी तरह परिपक्व हो जाएं तब कटाई करनी चाहिए।
प्रश्न 8: क्या जीरे की खेती लाभदायक है?
उत्तर: हां, मसाले और औषधीय उपयोग के कारण यह खेती अत्यंत लाभकारी है और बाजार में इसकी स्थायी मांग बनी रहती है।