मटर एवं अन्य दलहनीय फसलों में लगने वाले जड़ गलन रोग को कैसे करें प्रबंधित?
मटर एवं अन्य दलहनीय फसलों में लगने वाले जड़ गलन रोग को कैसे करें प्रबंधित?

डॉ एसके सिंह
प्रोफ़ेसर सह मुख्य वैज्ञानिक 
(प्लांट पैथोलॉजी) 
सह निदेशक अनुसंधान 
डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर, बिहार

मटर एवं अन्य दलहनीय फसलों में लगनेवाले जड़ गलन बहुत ही महत्त्वपूर्ण रोग है, क्योंकि इससे उपज प्रभावित होती है।यह रोग मुख्यतः जड़ों को प्रभावित करता है, जिससे अंकुर ठीक से नहीं निकलते, पौधों का कम विकास होता है, और उपज कम होती है। लक्षणों में दबे हुए घाव, जड़ों का भूरे या काले रंग से बदरंग होना, सिकुड़ती हुई जड़ प्रणाली और जड़ों की गलन शामिल हैं। यदि गांठें निकलती भी हैं, तो वे संख्या में कम, छोटी और हल्के रंग की होती हैं। संक्रमित बीजों से उगने वाले पौधों में अंकुर निकलने के कुछ समय बाद ही झुलस जाते हैं। जीवित बचने वाले पौधे हरितहीन होते हैं और उनकी जीवन शक्ति कम होती है। विकास की बाद कि अवस्थाओं में संक्रमित होने वाले पौधों में विकास अवरुद्ध हो जाता है। सड़ते हुए ऊतकों पर अवसरवादी रोगाणु बसेरा करते हैं, जिससे लक्षण और अधिक खराब हो जाते हैं। खेतों में, रोग प्रायः धब्बों में होता है और रोगाणुओं के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ होने पर बढ़ भी सकता है।

रूट रॉट रोग को आर्द्र गलन रोग के नाम से भी जाना जाता है। मटर की फसल को इस रोग से काफी नुकसान होता है। लेकिन यदि इस रोग का सही तरह से प्रबंध किया जाए तो पौधों को इस रोग से बचाने के साथ हम अच्छी गुणवत्ता की फसल भी प्राप्त कर सकेंगे। यह एक मृदा जनित रोग है वातावरण में अधिक आर्द्रता होने पर यह रोग ज्यादा तेजी से फैलते हैं। आमतौर पर इस रोग का प्रकोप छोटे पौधों में अधिक देखने को मिलता है।इस रोग से प्रभावित पौधों की निचली पत्तियां हल्के पीले रंग की होने लगती हैं। कुछ समय बाद पत्तियां सिकुड़ने लगती हैं। पौधों को उखाड़ कर देखा जाए तो उसके जड़ सड़े हुए दिखते हैं।

रोग से प्रभावित पौधे सूखने लगते हैं। इससे उत्पादन में भारी कमी आती है।लक्षण मिट्टी में रहने वाले कवकीय जीवाणुओं के मिश्रण के कारण होते हैं जो पौधों को उनके विकास के किसी भी चरण में संक्रमित कर सकते हैं। राइज़ोक्टोनिया सोलानी और फ़्यूज़ेरियम सोलानी शेष समूह की तरह इस मिश्रण का हिस्सा हैं, यह मिट्टी में लंबे समय तक जीवित रह सकते हैं। जब परिस्थितियाँ अनुकूल होती हैं, तो ये जड़ों के ऊतकों पर बसेरा करते हैं और पौधे के ऊपरी भाग तक पानी और पोषक तत्वों का परिवहन बाधित करते हैं, जो पौधों के मुरझाने और हरितहीन होने का कारण है। जैसे- जैसे ये पौधों के ऊतकों के अंदर बढ़ते जाते हैं, ये प्रायः इन कवकों के साथ पाए जाते हैं जो जड़ों के सामान्य विकास और गांठों के निर्माण को बाधित करते हैं। मौसम के आरंभ में ठंडी और नम मिट्टी रोग के विकास के लिए अनुकूल होती है। दरअसल, लक्षण प्रायः बाढ़ वाले या जलजमाव के इलाक़ों के साथ जोड़े जाते हैं। अंत मे, बुआई की तिथि और बुआई की गहराई का अंकुरों के निकलने और उपज पर गहरा प्रभाव होता है।

इस रोग से बचाव के उपाय
हमेशा प्रमाणित स्त्रोतों से प्राप्त बीजों का ही प्रयोग करें। बुआई हेतु प्रतिरोधी किस्मों का चयन करें। उचित जलनिकासी वाले खेत का चयन करना सुनिश्चित करें। पौधों के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों से बचने के लिए मौसम में देर से बुआई करें। पौधों के लिए संतुलित खाद एवं उर्वरक का प्रयोग सुनिश्चित करें। विकास की आरंभिक अवस्था में, विशेषतः ठंडी परिस्थितियों में,फ़ॉस्फ़ोरस की अच्छी आपूर्ति सुनिश्चित करें। इस रोग पर नियंत्रण के लिए फसल चक्र अपनाएं। खेत में जलजमाव की स्थिति न होने दें।

जैविक नियंत्रण
ट्राइकोडर्मा की 10 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोल कर प्रयोग करने से  मिट्टी से फैलने वाले रोग (Soil borne disease), जैसे कि दलहन की जड़ों की सड़न पर नियंत्रण पाने के लिए किया जा सकता है। इसके साथ ही, ये जीवित बचने वाले पौधों के विकास और उत्पादकता को बेहतर करता है।

रासायनिक नियंत्रण
हमेशा निरोधात्मक उपायों और जैविक उपचार, यदि उपलब्ध हों, वाला एक समेकित दृष्टिकोण अपनाएं। एक बार जब कवक पौधों के ऊतकों पर आक्रमण कर लेता है, तब रोको एम या कार्बेंडाजिम नामक कवकनाशक की 2 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर मिट्टी का उपचार करने से (Soil drenching) रोग की उग्रता में भारी कमी आती है।