कृषि रसायनों के ऊपर निर्भरता कम करने के लिए आवश्यक है की जैविक खेती या जीरो बजट खेती को लोकप्रिय बनाया जाय
कृषि रसायनों के ऊपर निर्भरता कम करने के लिए आवश्यक है की जैविक खेती या जीरो बजट खेती को लोकप्रिय बनाया जाय

प्रोफेसर (डॉ) एस.के .सिंह
मुख्य वैज्ञानिक( प्लांट पैथोलॉजी )
प्रधान अन्वेषक अखिल भारतीय अनुसंधान परियोजना फल एवम्
सह निदेशक अनुसंधान
डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय
पूसा , समस्तीपुर बिहार

एक समय था जब वैज्ञानिकों ने बढ़ती जनसंख्या को भोजन उपलब्ध कराने के लिए कृषि रसायनों के संतुलित उपयोग को बढ़ावा दिया। कृषि रसायनों का इस प्रकार से उपयोग करने की सलाह दिया की जहा अत्यावश्यक हो वहा पर कृषि रसायनों का उपयोग अंतिम विकल्प के रूप में किया जाय, जितनी आवश्यकता हो केवल उतनी मात्रा में किया जाय, इस प्रकार से उपयोग किया जाय की जिसके विपरित किया जा रहा है केवल उसी के प्रति प्रभावी हो अन्य को प्रभावित न करें।
लेकिन लोगों ने कृषि रसायनों का अंधाधुंध उपयोग करके ,कृषि उत्पाद को विषैला बना दिया,जिससे कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी विकराल रूप से हमारे सामने दिखाई देने लगी है। आज हर तरफ इन कृषि रसायनों के प्रति एक आक्रोश है ।लोग जैविक खेती या जीरो बजट कृषि की तरफ आकर्षित हो रहे है।
खेती-बारी  में लगातार बढ़ रहे रसायनों के प्रयोग से हमारी मृदा जहरीली होती जा रही है. किसान अधिकतम लाभ के चक्कर में अधिकाधिक कृषि  रसायनों  का इस्तेमाल कर रहे हैं। जिससे मिट्टी की विशिष्टता (क्वालिटी) खराब हो ही रही है, साथ ही ये ग्लोबल वार्मिंग की समस्या को भी बढ़ा रहा है. इस तरह की खेती करने से फसलों का भी काफी नुकसान होता है और मानव शरीर पर भी इसका बुरा असर देखने को मिल रहा है। इसके विपरित कुछ  किसान इसके समाधान के रूप में जैविक खेती के अपना रहे हैं, लेकिन विशेषज्ञों की मानें तो जैविक खेती भी पूरी तरह रसायन मुक्त नहीं है। इस गंभीर समस्या के बीच 'प्राकृतिक खेती' को एक बेहतर विकल्प के रूप में देखा जा रहा है।


आइए जानते है की प्राकृतिक खेती क्या है?
प्राकृतिक खेती को जीरो बजट खेती भी कहते हैं, जिससे किसानों का खर्च कम होता है. क्योंकि इसमें खेती का खर्च ना के बराबर होता है। प्राकृतिक खेती को पशु आधारित खेती भी कहते हैं, क्योंकि इस विधि में इस्तेमाल होने वाला मुख्य साधन है पशुवो का गोबर और गौ मूत्र. इसकी मदद से फसल के लिये जीवामृत और घनामृत बनाया जाता है। जीमामृत से मिट्टी की सेहत और फसल की उत्पादकता बढ़ जाती है। बता दें कि जानवरों के गोबर और मूत्र में 16 तरह के पोषक तत्व होते हैं, जो मिट्टी की क्वालिटी और फसल की उत्पादकता बढ़ाने में मददगार साबित होते हैं। प्राकृतिक खेती को 'जीरो बजट खेती' इसलिये भी कहते हैं क्योंकि ज्यादातर किसान पशुपालन भी करते हैं, ऐसे में उनके गोबर-मूत्र का इस्तेमाल जीवामृत बनाने के लिये किया जाता है. जीवामृत से फसलों पर महीने में दो या दो से अधिक बार का छिड़काव किया जाता है. एक अनुमान के अनुसार एक अकेले पशु के गोबर से किसान लगभग 30 एकड़ जमीन पर खेती करने के लिये जीवामृत बना सकते हैं. बर्मी कंपोस्ट (केंचुआ खाद) बनाने में जानवर खासकर गाय एवम भैंस के गोबर और मूत्र की गंध से केंचुओं की संख्या बढ़ने में मदद मिलती है।
प्राकृतिक विधि से खेती करने पर खेत में गहरी जुताई की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि मिट्टी में कचरे और कीड़ों की संभावना कम हो जाती है. इस विधि का प्रयोग करने सिंचाई के लिये पानी की खपत कम हो जाती है, सिर्फ 10 से 15 % पानी की ही जरूरत होती है.ज्यादा सिंचाई हानिकारक हो सकती है, क्योंकि इससे जड़ों की लंबाई तो बढ़ती है, लेकिन तनों की मोटाई और पौधों की लंबाई में कमी आ जाती है. प्राकृतिक खेती में देसी बीजों और खाद को मेन साधनों के रूप में देखा जाता है. जो फसल की उत्पादकता को बढ़ाते हैं. अलग से उर्वरक और कीटनाशक खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती, जिससे किसानों का खर्च कम होता है। जैविक खेती एक कृषि प्रणाली है जो जैविक मूल के उर्वरकों जैसे कंपोस्ट खाद, बर्मी कंपोस्ट खाद, हरी खाद और हड्डी के चूरे से बनी खाद का उपयोग करते है और फसल चक्र और रोपण जैसी तकनीकों पर जोर देती है। इस कृषि का विकास 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में  हुआ था। प्रमाणित जैविक कृषि विश्व स्तर पर 70 मिलियन हेक्टेयर में हो रही है, जिसमें से आधे से अधिक हिस्सा ऑस्ट्रेलिया का है। विभिन्न संगठनों द्वारा आज भी जैविक खेती पर अनुसंधान जारी है। इस प्रकार की खेती में जैविक कीट नियंत्रण, मिश्रित फसल और कीट शिकारियों को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इसमें सिंथेटिक पदार्थों को प्रतिबंधित या सख्ती से सीमित करते हुए प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले पदार्थों के उपयोग की अनुमति दिया गया है। उदाहरण के लिए, पाइरेथ्रिन और रोटेनोन जैसे प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले कीटनाशकों की अनुमति है, जबकि सिंथेटिक उर्वरक और कीटनाशक निषिद्ध हैं। जिन सिंथेटिक पदार्थों की अनुमति है उनमें शामिल हैं, कॉपर सल्फेट, मौलिक सल्फर और वर्मिमेक्टिन (Vermectin)। पशुपालन में आनुवंशिक रूप से संशोधित जीव, नैनोमटेरियल्स, मानव सीवेज कीचड़, पौधों के विकास नियामकों, हार्मोन और एंटीबायोटिक का उपयोग निषिद्ध है।
 जैविक कृषि विधियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नियमित किया जाता है और कई देशों द्वारा कानूनी रूप से लागू किया जाता है, जो कि 1972 में स्थापित जैविक कृषि संगठनों के लिए एक अंतरराष्ट्रीय  संगठन, इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ ऑर्गेनिक एग्रीकल्चर मूवमेंट्स (IFOAM) द्वारा निर्धारित मानकों पर आधारित है। जैविक कृषि को इस प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है। "एक एकीकृत कृषि प्रणाली के रूप में जो टिकाऊपन, मिट्टी की उर्वरता और जैविक विविधता में वृद्धि के लिए प्रयास करती है, जबकि दुर्लभ अपवादों के साथ, सिंथेटिक कीटनाशकों, एंटीबायोटिक दवाओं, सिंथेटिक उर्वरकों, आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों और विकास हार्मोन को प्रतिबंधित करती है"।
 सन 1990 के बाद से, जैविक खाद्य और अन्य उत्पादों का बाजार तेजी से बढ़ा है, 2012 में दुनिया भर में $63 बिलियन तक पहुंच गया है। वर्ष 2019 तक, दुनिया भर में लगभग 72,300,000 हेक्टेयर (179,000,000 एकड़) में जैविक रूप से खेती की गई थी, जो कुल विश्व कृषि भूमि का लगभग 1.5% है। जैविक खेती के संदर्भ में भारत एवं विश्व के अन्य देशों के किसानों का अनुभव रहा हैं कि रासायनिक खेती को तत्काल छोड़कर जैविक खेती अपनाने वाले किसानों को पहले तीन सालों तक आर्थिक रूप से घाटा होता है, इसके बाद चौथे तथा पाँचवे साल से लाभ मिलना प्रारंभ होता है। भारत में जैविक खेती की संभावना को सफल बनाने के लिए यह आवश्यक है की सरकार जैविक खेती करने वाले किसानों को  स्वयं के संस्थानों से प्रमाणीकृत खाद सब्सिडी पर उपलब्ध करवाए तथा चार साल की अवधि के लिये गारंटी युक्त आमदनी हेतु बीमा की व्यवस्था करके प्रारंभिक सालों में होने वाले घाटे की क्षतिपूर्ति संभव हो तो करे। सरकार को पशुपालन को बढ़ावा देना चाहिये जिससे किसान जैविक खाद के लिये पूरी तरह बाज़ार पर आश्रित न रहें। तात्कालिक आवश्यकता यह है कि प्राथमिकताओं में परिवर्तन लाया जाए और सब्सिडी को रासायनिक कृषि से जैविक कृषि की ओर मोड़ा जाए। 
सिक्किम को विश्व के प्रथम जैविक राज्य के रूप में चिह्नित किया गया है। आंध्र प्रदेश द्वारा 'शून्य बजट प्राकृतिक खेती' (Zero Budget Natural Farming) परियोजना की शुरुआत की गई और वर्ष 2024 तक रसायन के प्रयोग को चरणबद्ध ढंग से समाप्त करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। सरकार को रासायनिक कृषि क्षेत्र को प्रदत्त अवांछित सब्सिडी को जैविक कृषि क्षेत्र की ओर मोड़ देना चाहिये और देश भर में कृषकों को प्रोत्साहित व प्रशिक्षित करना चाहिये कि वे जैविक कृषि अभ्यासों की ओर आगे बढ़ें तथा इस प्रकार अपनी आजीविका में वृद्धि करें एवं रासायनिकों के खतरे से जीवन की रक्षा करें।
जैविक खेती को लोकप्रिय बनाने के लिए आवश्यक है की किसान अधिक से अधिक जानवर पाले, घर एवं पशुशाला से निकलने वाले कचरे से कंपोस्ट खाद बनाई जाय, वर्मी कंपोस्ट बनाने की वैज्ञानिक विधि आनी चाहिए,दो फसलों के बीच के समय में हरी खाद उगाना चाहिए,रोग एवं कीटों के प्रबंधन हेतु रसायनों के प्रयोग से बचना चाहिए।जैविक रोग एवं कीट नाशको के माध्यम रोग एवं कीट के प्रबंधन पर जोर देना चाहिए। साफ सुथरी खेती को बढ़ावा देना चाहिए।