पपीता का रिंग स्पाट विषाणु रोग एवं पत्रकुंचन विषाणु रोग के प्रमुख लक्षण एवं कैसे करे प्रबंधन?
पपीता का रिंग स्पाट विषाणु रोग एवं पत्रकुंचन विषाणु रोग के प्रमुख लक्षण एवं कैसे करे प्रबंधन?

डॉ. एसके सिंह
प्रोफेसर सह मुख्य वैज्ञानिक( प्लांट पैथोलॉजी)
एसोसिएट डायरेक्टर रीसर्च
डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय
पूसा , समस्तीपुर बिहार

वितरण 
यह पपीता का सबसे खतरनाक रोग है जो सभी पपीता उत्पादक देशों में पाया जाता है, अफ्रीका को छोड़कर। इस रोग के कई नाम है जैसे- पपीता का डिस्टारशन रिंग स्पाट या मोजैक।  ये सभी इसी बीमारी के अन्य नाम है। इस रोग के विषाणु कैरीकेसी कुकुरबिटेसी एवं चेनोपोडीएसी कुल के पौधों पर ही पाये जाते हैं।

लक्षण 
 यह रोग PRV-P के द्वारा उत्पन्न होता है। PRV-P भी कई तरह के होते हैं, जिसकी वजह से इसकी उग्रता भी घटते-बढ़ते रहती है।  इस रोग में पत्तियों पर गहरे हरे रंग के धब्बे बनते हैं, जो प्रायः धँसे होते हैं। इस रोग को रिंग के द्वारा आसानी से पहचाना जा सकता है। यह रिंग फलों पर ज्यादा स्पष्ट दिखाई देते हैं।  जैसे-जैसे फल परिपक्व तथा पीला होने लगता है। रिंग अस्पष्ट होने लगती है। फलों पर इस रोग की वजह से कुबड़ापन उभर आता है। इस रोग में सर्वप्रथम उपर से दूसरी या तीसरी पत्ती पीली होती है। पत्तियों पर मोजैक के लक्षण स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।  पत्तियों की नसें स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। पत्तियाँ कटी-फटी-सी दिखाई देती है।  
रोग की उग्र अवस्था में पत्तियों पतले धागों के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं। तनों एवं पर्ववृन्तों पर तैलीय खरोंच जैसे निशान भी इस रोग की वजह से देखे जा सकते हैं। इस रोग की उग्रता की वजह से पत्तियों, पर्णवृन्त एवं आक्रान्त पौधे सामान्य पौधों की तुलना में छोटे तथा कभी-कभी बौने से दिखाई देते हैं। इस रोग की वजह से पपीता के सभी उम्र के पौधे समान रूप से आक्रान्त होते हैं। रोगग्रस्त पौधे से स्वस्थ पौधों तक इस रोग के विषाणु सभी प्रकार के एफिड के द्वारा पहुँचते हैं। विषाणु के स्वस्थ पौधों तक पहुँचने के तकनीबन 2-3 सप्ताह के पश्चात् इस रोग के लक्षण दिखाई देते हैं। यदि इस रोग से पपीता कम उम्र में ही आक्रान्त हो गया तो ऐसे पौधों में फल नहीं लगते हैं, लेकिन ऐसे पौधे जल्दी मरते भी नहीं हैं।

PRV-P का जीव विज्ञान
इस रोग के विषाणु जम्बे, घुमावदार, डण्डे जैसे कण होते हैं जो 800-900 मि0मी0 लम्बे होते हैं।  इस विषाणु के कण का एफिड की विभिन्न प्रजातियों द्वारा रोगग्रस्त पौधे से स्वस्थ पौधों संचरण तक होता है।  पपीता के रिंग स्पाॅट विषाणु को दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है यथा PRV-P एवं PRV-W। PRV-P नामक विषाणु पपीता के अतिरिक्त कद्दूकुल के अन्य पौधों को भी इस रोग से आक्रान्त कर सकते हैं जबकि PRV-W केवल कद्दूकुल के पौधों को ही आक्रान्त कर सकता है।  इससे पपीता आक्रान्त नहीं होता है। PRSV की इन दोनों प्रभेदों को  Serologically अलग नहीं किया जा सकता है। इन्हें इनके परपोषी द्वारा ही अलग-अलग पहचाना जा सकता है।

प्रसार
इस रोग के विषाणु रोगग्रस्त पपीता के पौधे से स्वस्थ पपीता तक एफिड की विभिन्न प्रजातियों द्वारा पहुँचाया जाता है। जैसे ही एफिड आक्रान्त पौधे पर रस चूसने के लिए बैठता है ठीक उसी समय इस रोग के विषाणु एफिड के मुँह में चले जाते हैं। इस कुल प्रक्रिया में मात्र कुछ सेकेण्ड लगते हैं। तत्पश्चात् यहाँ से जब एफिड स्वस्थ पौधे पर पहुँचता है इस रोग के विषाणु को उस पौधे में प्रवेश करा कर उसे आक्रान्त कर देता है। इस रोग के विषाणु जल्द से जल्द रोगग्रस्त पौधे से एफिड के मुँह में तथा वहाँ से स्वस्थ पौधों तक पहुँचाये जाते हैं। यह सब कार्य बहुत ही जल्दी सम्पन्न होता है। इस प्रक्रिया में जितना अधिक समय लगेगा, विषाणु के अन्दर रोग उत्पन्न करने की क्षमता में कमी आते जायेगी। इस रोग का प्रसार एफिड के अलावा अन्य किसी कीड़े द्वारा नहीं होता है। इस रोग के विषाणु मृदा या मृत पपीता के पौधे में जीवित नहीं रह सकते हैं।  यह रोग बीजजनित भी नहीं है इसका मतलब इस रोग का प्रसार बीज द्वारा नहीं होता है। इस रोग  का प्रसार रोगग्रस्त पौधों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने से हो सकता है। एक बार इस रोग से आक्रान्त होने के पश्चात् इस रोग से छुटकारा किसी प्रकार से सम्भव नहीं है।

वाइरस संचरण
एफिड अपने परपोषी से रस चूसता है। एफिड बहुत सी विषाणुजनित रोगों के संचरण में एक संवाहक की भूमिका अदा करता है। सीधे तौर पर एफिड द्वारा फसलों का उतना नुकसान नहीं होता है जितना उसके द्वारा फैलाये गये रोगों द्वारा फसलों का नुकसान होता है। उपरोक्त तथ्य पपीता के रिंग स्पाट विषाणु के सन्दर्भ में अक्षरशः लागू होती है। एफिड जब रोग से आक्रान्त पौधों से रस चूसता है ठीक उसी समय विषाणु के कण, एफिड के मुँह में चले आते हैं एवं जब यह एफिड रस चूसने के लिए स्वस्थ पौधे पर पहुँचता है ठीक उसी समय रस चूसने के क्रम में विषाणु के कण को स्वस्थ पौधे में पहुँचा देता है। इस कुल प्रक्रिया में एक मिनट से भी कम समय लगता है। एफिड के सन्दर्भ में नर एवं मादा के मध्य प्रजनन के उपरान्त अण्डा देने की प्रक्रिया शुरू हो, ऐसा आवश्यक नहीं है।  एफिड की मादा सीधे मादा निम्फ को जन्म दे सकती है। प्रौढ़ मादा 8-10 नवजात निम्फ/दिन दे सकती है। इस तरह से एक वर्ष में एफिड की कई पीढ़ी पैदा हो सकती है। पपीता की रिंग स्पाट बीमारी पपीता के रिंग स्पाट विषाणु द्वारा होती है। सभी पपीता उत्पादक राष्ट्रों में यह पपीता की सबसे घातक बीमारी है। इस बीमारी का संचरण मुख्यतः एफिड की विभिन्न प्रजातियों द्वारा होती है।

पपीता का पत्रकुंचन विषाणु रोग 
यह रोग Geminivims द्वारा होता है। इसमें पत्तियों के शीर्ष भाग पूर्ण रूप से नीचे की ओर मुड़ जाते हैं जिनकी वजह से न तो पौधों में बढ़वार हो पाती है, न ही उन पर फल लग पाते हैं। पत्तियों के डंठल भी विकृत हो जाते हैं। पत्तियाँ और उनकी नसें मोटी हो जाती हैं। प्रभावित पत्तियाँ कटी-फटी एवं चमड़े जैसी मोटी हो जाती है। इस रोग से आक्रान्त पेड़ में फल नहीं लगते हैं यदि फल लग भी गये तो समय पूर्व गिर जाते हैं, पत्तियाँ गिर जाती हैं। पौधों की वृद्धि रूक जाती है। लगभग 70% तक यह रोग सफेद मक्खी द्वारा फैलाया जाता है।

पपीता में लगने वाले विषाणुजनित रोगों का प्रबन्धन

  • पपीता रिंग स्पाट विषाणु रोग से सहिष्णु पपीता की प्रजातियों को उगाना चाहिए। राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय में पपीता की विभिन्न प्रजातियों का परीक्षण इस बीमारी के विरूद्ध किया गया एवं पाया गया कि पूसा ड्वार्फ प्रजाति सभी प्रजातियों में सर्वश्रेष्ठ है। बीमारी के बावजूद उन्नत कृषि के द्वारा प्रथम वर्ष 45-55 कि0ग्रा0/ पौधा बाजार योग्य फल लिया जा सकता है।
  • नेट हाउस/ पाली हाउस में बिचड़ा उगाना चाहिए जो इस रोग से मुक्त हो।  क्योंकि नेट हाउस/ पाली हाउस में एफिड को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है।
  • बिचड़ों की रोपाई ऐसे समय करनी चाहिए जब पंख वाले एफिड न हों या बहुत कम हो क्योंकि इन्हीं के द्वारा इस रोग का फैलाव होता है।  प्रयोगों द्वारा पाया गया है कि बिहार में मार्च अप्रैल एवं सितम्बर-अक्टूबर रोपाई हेतु सर्वोत्तम है।  
  • पपीता को छोटी-छोटी क्यारियों में लगाना चाहिए एवं क्यारियों के मेंड़ पर ज्वार, बाजड़ा, मक्का या ढैंचा इत्यादि लगाना चाहिए ऐसा करने से एफिड को एक क्यारी से दूसरे क्यारी में जाने में बाधा उत्पन्न होता है इसी क्रम में एफिड के मुँह में पड़ा विषाणु का कण के अन्दर रोग उत्पन्न करने की क्षमता में कमी आती है या समाप्त हो जाती है।
  • जैसे-ही कहीं भी रोगग्रस्त पौधा दिखाई दे तुरन्त उसे उखाड़ कर जला दें या गाड़ दें, नहीं तो यह रोग उत्पन्न करने में स्रोत का कार्य करेगा।
  • एफिड को नियंत्रित करना अत्यावश्यक है क्योंकि एफिड के द्वारा ही इस रोग का फैलाव होता है। इसके लिए आवश्यक है कि इमीडाक्लोप्रीड 1 मि0ली0/ 2 लीटर पानी में घोलकर निश्चित अन्तराल पर छिड़काव करते रहना चाहिए।
  • पपीता को वार्षिक फसल के तौर पर उगाना चाहिए। ऐसा करने से इस रोग के निवेशद्रव्य में कमी आती है तथा रोगचक्र टूटता है। बहुवर्षीय रूप में पपीता की खेती नहीं करनी चाहिए।
  • पपीता की खेती उच्च कार्बनिक मृदा में करने से भी इस रोग की उग्रता में कमी आती है।
  • मृदा का परीक्षण कराने के उपरान्त जिंक एवं बोरान की कमी को अवश्य दूर करना चाहिए।  ऐसा करने से फल सामान्य एवं सुडौल प्राप्त होते हैं।
  • नवजात पौधों को सिल्वर एवं काले रंग के प्लास्टिक फिल्म से मल्चिंग करने से पंख वाले एफिड पलायन कर जाते हैं जिससे खेत में लगा पपीता इस रोग से आक्रान्त होने से बच जाता है।
  • उपरोक्त सभी उपाय अस्थाई हैं इससे इस रोग की उग्रता को केवल कम किया जा सकता है समाप्त नहीं किया जा सकता है। इन उपायों को करने से रोग, देर से दिखाई देता है। फसल जितनी देर से इस रोग से आक्रान्त होगी उपज उतनी ही अच्छी प्राप्त होगी।
  • इस रोग का स्थाई उपाय ट्राँसजेनिक पौधों का विकास है। इस दिशा में देश में कार्य आरम्भ हो चुका है। विदेशों में विकसित ट्राँसजेनिक पौधों को यहाँ पर ला कर उगाया गया, तब ये पौधे रोगरोधिता प्रदर्शित नहीं कर सकें।