केला उत्पादन की सम्पूर्ण तकनीक : एक नजर में (Part 2nd)
केला उत्पादन की सम्पूर्ण तकनीक : एक नजर में (Part 2nd)

जल प्रबन्धन
अधिकतम उत्पादकता हेतु केले को बड़ी मात्रा में पानी की आवष्यकता होती है। इसलिए भारतीय परिस्थिति में केला की खेती प्रभावी सिचाई तन्त्र द्वारा सुसज्जित होना चाहिए। मृदा नमी रिक्तीकरण के आधार पर 40 प्रतिशत रिक्तीकरण आदर्श है। 
केला में 20 सिंचाई की आवश्यकता  होती है। यदि उसमें अन्तरवर्तीय फसल है तब यह सिचाई 24 हो जाती है। समूचे वाष्पोत्र्सजन पटल के आधार पर केला में जल की आवश्यकता 2000 मीमी निकाली गयी है। टपक सिंचाई एंव बिछावन प्रौद्योगिकी के आगमन के फलस्वरूप जल उपयोग क्षमता में काफी उन्नति किया है। टपक सिचाई एवं कार्बनिक बिछावन (गन्ना की सुखी पत्ती /6 टन/हेक्टेयर) की वजह से 56 प्रतिशत जल की आवश्यकता में कमी आती है। टपक सिंचाई के साथ उर्वरकों के प्रयोग करने की वजह से नत्रजन की कुल आवश्यकता में 60 प्रतिशत तक कमी आती है। जोड़ा पंक्ति पद्धति में (1.2 मी0 x1.2 मी0) टपक सिचाई का प्रयोग करने से भारी लाभ दर्ज किया गया है।
केला के प्रकन्द या ऊतक संवर्धित पौधों के रोपण के उपरान्त हल्की सिंचाई आवष्यक है। केला के पौधों को किसी भी अवस्था में पानी की कमी से नुकसान नहीं होना चाहिए। गर्मियों में पौधों को कम अन्तर से सीचना चाहिए। सर्दियों में ठंढक से बचाने के लिए भी सिंचाई आवश्यक है। मानसून मौसम में यदि वर्षा देर से हो तो पौधों को 10-15 दिन के अन्तर पर सिचांई करना अच्छा रहता है। जुलाई-सितम्बर में जब वर्षा हो रही हो उस समय सिंचाई की आवष्यकता नहीं पड़ती। ड्रिप सिंचाई का केला उत्पादन में एक महत्वपूर्ण स्थान है। इस विधि द्वारा लगभग 40 प्रतिषत पानी को बचाया जा सकता है। इस विधि द्वारा केला की खेती करने से रोग एवं कीड़े कम लगते है तथा उपज अधिक प्राप्त होती है। पौधों की स्वस्थ बढ़वार के लिए 15-20 लीटर पानी प्रति दिन आवष्यक है।

पोषण प्रबन्धन
केला भारी मात्रा में पोषक तत्वों का उपयोग करने वाला पौधा है तथा इन पोषक तत्वों के प्रति धनात्मक प्रभाव छोड़ता है। कुल फसल उत्पादन का लगभग 30-40 प्रतिषत लागत खाद एवं उर्वरक के रूप में खर्च होता है। उर्वरकों की मात्रा, प्रयोग का समय, प्रयोग की विधि, प्रयोग की वारम्बारता, प्रजाति, खेती करने का ढ़ंग एवं स्थान विषेष की जलवायु द्वारा निर्धारित होती है।
केला की सफल खेती हेतु सभी प्रधान एवं  सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवष्यकता होती है तथापि उनकी मात्रा उनके कार्य एवं उपलब्धता के अनुसार निर्धारित होती है। प्रमुख पोषक तत्वों में नाइट्रोजन सर्वाधिक महत्वपूर्ण पोषक तत्व है। केला का सम्पूर्ण जीवन काल को दो भागों में बाटते ह,ै वानस्पतिक वृद्धि की अवस्था मृदा में उपलब्ध नाइट्रोजन एवं किस्म के अनुसार केला की सामान्य वानस्पतिक वृद्धि हेतु 200-250 ग्राम/पौधा देना चाहिए। नाइट्रोजन की आपूर्ति सामान्यतः यूरिया के रूप में करते हैं। इसे 2-3 टुकड़ों में देना चाहिए। वानस्पतिक वृद्धि की मुख्य चार अवस्थाएँ है जैसे, रोपण के 30, 75, 120 और 165 दिन बाद एवं प्रजननकारी अवस्था की भी मुख्य तीन अवस्था में होती हैं जैसे, 210, 255 एवं 300 दिन बाद रोपण के लगभग 150 ग्राम नत्रजन को चार बराबर भाग में बाँट कर वानस्पतिक वृद्धि की अवस्था में प्रयोग करना चाहिए, इसी प्रकार से 50 ग्राम नेत्रजन को 3 भाग में बाँट कर प्रति पौधा की दर से प्रजननकारी अवस्था में देना चाहिए। बेहतर होता कि नेत्रजन का 25 प्रतिषत सड़ी हुई कम्पोस्ट के रूप में या खल्ली के रूप में प्रयोग किया जाय। केला में फास्फोरस के प्रयोग की कम आवश्यक होती है। सुपर फास्फेट के रूप में 50-95 ग्राम/पौधा की दर से फास्फोरस देना चाहिए। फास्फोरस की सम्पूर्ण मात्रा को रोपण के समय ही दे देना चाहिए।
पोटैशियम की भूमिका केला की खेती में महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके विविध प्रभाव है। इसे खेत में सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है तथा इसकी उपलब्धता तापक्रम द्वारा प्रभावित होती है। गहर में फल लगते समय पोटाष की लगातार आपूर्ति आवष्यक है, क्योंकि गहर में फल लगने की प्रक्रिया में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। केला की वानस्पतिक वृद्धि के दौरान 100 ग्राम पोटैशियम को दो टुकड़ो में फल बनते समय देना चाहिए। 300 ग्राम पोटैशियम तक की संस्तुति प्रजाति के अनुसार किया गया है। म्यूरेट आफ पोटाश  के रूप में पोटैशियम देते है। प्लान्टेन में अन्य केलों की तुलना में ज्यादा पोटाश  प्रयोग किया जाता है। 7.5 पी. एच. मान वाली मृदा में तथा टपक सिचाई में पोटैशियम सल्फेट के रूप में पोटैशियम देना लाभदायक होता है।
कैल्सीयम, नत्रजन , फास्फोरस एवं पोटाश  के साथ प्रतिक्रिया करके अपना प्रभाव छोड़ता है। अम्लीय मृदा में भूमि सुधारक के रूप में डोलोमाइट एवं चूना पत्थर सामान्यतः प्रयोग किया जाता है। मैग्नीशियम, पौधों के क्लोरोफील बनने में तथा सामान्य वृद्धि की अवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, अतः इसकी कमी पौधों की सामान्य बढ़वार का प्रभावित करती है। पौधों में इसकी अत्याधिक कमी की अवस्था में मैग्नीशियम सल्फेट का प्रयोग करने से पौधों में कमी के लक्षण समाप्त हो जाते है। यद्यपि मृदा में सल्फर की कमी पाई जाती है, लेकिन केला की खेती में इसकी कोइ अहम भूमिका नहीं हैं। सूक्ष्म पोषक तत्वों में जिंक, आयरन, बोरान, कापर एवं मैग्नीज पौधों की सामान्य वृद्धि एवं विकास में अहम भूमिका अदा करते है। जिंक सल्फेट 0.1 प्रतिशत, बोरान 0.005 प्रतिशत तथा मैग्नीशियम 0.1 प्रतिशत एवं 0.5 प्रतिशत फेरस सल्फेट छिड़काव करने से अधिक उपज प्राप्त होती है। एजोस्पाइरीलियम एवं माइकोराइजा का भी प्रयेाग बहुत ही फायदेमन्द साबित हुआ है। अतः समन्वित पोषण प्रबन्धन पर ध्यान देना चाहिए। पोषण उपयोग क्षमता को टपक सिचाई विधि द्वारा कई गुना बढ़ाया जा सकता है। प्रभावी पोषण प्रबन्धन के लिए आवष्यक है कि किसान केला में उत्पन्न होने प्रमुख/सुक्ष्म पोषक तत्वों की कमी से उत्पन्न होने वाले लक्षणों भी भलीभाति परिचित हो।

मुख्य/सूक्ष्म पोषक तत्वों के कमी के लक्षण

  • नत्रजन-पुरानी  पत्तीओं का पीला होना, पत्ती का छोटा होना, पौधा छोटा रह जाना।
  • फास्फोरस-पत्तियों के रंग का गहरा बैंगनी होना, पत्तीयों के उत्पन्न होने की दर में कमी, किनारों का पीला होना।
  • सल्फर-नवजात पत्ती का पीला होना या गाढ़ा पीला होना।
  • पोटाश-वृद्धि में कमी आना, किनारों से जला हुआ दिखाई देना।
  • कैल्सियम- खेत में लक्षण अभी ज्ञात नहीं हैं।
  • मैगनीशियम-पर्णवृन्त का बैंगनी रंग का हो जाना।
  • आयरन- नयी पत्तियों में नसों के मध्य पीला होना।
  • मैग्नीज-किनारो में  नसों का पीला होना।
  • जिंक- पत्तियों का पतला होना, पौधों का छोटा रह जाना।
  • कापर-पत्तियों का  छात्ता के समान नीचे की तरफ झुक जाना।

केला में यदि पोषक तत्वों/सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी हो जाती है, तो केला की पत्तियों से उनके लक्षण परिलक्षित होने लगते है । यह असंक्रामक रोग होते है। इस सम्बन्ध में आवश्यक  है कि केला उत्पादक किसान अपने बागों की मृदा की जाँच किसी विष्वसनीय प्रयोगशाला में समय-समय पर कराते रहे एवं उस मृदा जाँच प्रयोगशाला के विशेषज्ञों की सलाह के अनुसार अपनी मृदा में पोषक तत्वों का प्रयोग करें। क्योकि पोषक तत्वों की कमी एवं अधिकता दोनों नकारात्मक रूप से केला की उपज को प्रभावित करती हैं।

सूक्ष्म मात्रिक तत्वों का बेसल ड्रेसिंग/छिड़काव हेतु/हेक्टेयर दर
क्रम -सूक्ष्म मात्रिक तत्वों का नाम- भूमि में प्रयोग हेतु मात्रा/हेक्टेयर में- छिड़काव हेतु घोल का प्रतिशत
लोहा- फेरस सल्फेट 10 कि.ग्रा. - 0.4 प्रतिशत फेरस सल्फेट +  0.2 प्रतिशत चूना का घोल
जस्ता- जिंक सल्फेट 10-40 कि.ग्रा.- 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट +   0.25 प्रतिशत चूना का घोल
बोरान- बोरेक्स 5-20 कि.ग्रा.- 0.2 प्रतिशत बोरेक्स (सुहागा) का घोल
मैग्नीज- मैंग्नीज सल्फेट 10-15 कि.ग्रा.- 0.6 प्रतिशत मैंग्नीज सल्फेट + 0.3 प्रतिशत चूना का घोल
ताँबा- कापर सल्फेट 5-10 कि.ग्रा- 0.2 प्रतिशत कापर सल्फेट  +  0.5 प्रतिशत चूना का घोल
मालीब्डेनम- सोडीयम मालीब्डेट 1.50 कि.ग्रा.- 0.01 प्रतिशत -0.02 प्रतिशत  का घोल

खर-पतवार प्रबन्धन
केला की खेती में खर-पतवार नियंत्रण की एक अहम भूमिका है, क्योंकि यह लगभग 40-50 प्रतिशत तक मृदा एवं प्रजाति के अनुसार उपज को प्रभावित करती हैं। केला के बाग को पूर्णतया खर-पतवार से मुक्त रखना चाहिए। कही-कही केला प्रारम्भिक अवस्था में पक्तियों के बीच में बैल चालित कल्टीवेटर चलाकर खर-पतवार को नियंत्रित किया जाता है। खर- पतवार के प्रबन्ध हेतु हाथ द्वारा निकाई-गुड़ाई नियमित रूप से करना आवष्यक है। रोपण के पूर्व खेत की गहरी जुताई करना चाहिए, जिससे खर-पतवार कम उगते हैं। इन शस्य क्रियाओं के अलावा कुछ कृषि रसायन भी खोजे गये हैं जिनसे खरपतवारों को नियंत्रित किया जाता है। ग्लाइसेल की 0.4 प्रतिशत मात्रा का छिड़काव करने से भी खरपतवार नियंत्रित होते हैं। लेकिन यह आवष्यक है कि खर-पतवार को समन्वित तरीके से ही नियंत्रित किया जाय। इसके लिए मिश्रित खेती जैसे, लोबिया की खेती या मृदा को गन्ने की सूखी पत्तियों या धान के पुआल से (/ 10 टन/हेक्टेयर) ढ़कने से भी खरपतवार नियंत्रित होते हैं।
इन विधियों के साथ-साथ ग्लाइसेल का प्रयोग करना आर्थिक दृष्टि से लाभदायक रहता है। जब तक पौधे पूर्ण रूप से नीचे की मृदा को न ढ़क लें, पौधों की निकाई-गुड़ाई करते रहना चाहिए। हर सिंचाई के पष्चात हल्की गुड़ाई एवं निराई आवष्यक है।

अवांछित सकर (प्रकन्द) की कटाई
 हिन्दी में एक कहावत है कि “केला रहे हमेशा अकेला” इस पंक्ति के अनुसार केला की अच्छी एवं आर्थिक दृष्टि से लाभदायक उपज प्राप्त करने के लिए आवष्यक है कि मातृ पौधे के आस-पास उग रहे अवान्छित केला के पौधों को हटाते रहना चाहिए। लगभग 45 दिन में एक बार इस अवान्छित पौधों को काटते रहना एक सामान्य प्रक्रिया है, दो-तीन माह के केला के बाग में उग रहे पौधों को किसी तेज धार के चाकू से काटते रहना चाहिए। बेहतर होगा कि हम इन पौधों के साथ-साथ इनके प्रकन्दों को भी काटते रहें। लेकिन इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि मातृ पौधे को किसी प्रकार का नुकसान न पहुँचे । प्रकन्दों के कटे भाग के मध्य पर 4 मीली लीटर मिट्टी का तेल (किरासन तेल) भी डालना चाहिए। जब तक मातृ पौधे में फूल न आये तब तक किसी भी अधोभूस्तारी को आगे वृद्धि नही होने देना चाहिए। जब मातृ पौधे में गहर (घौंद) निकल आयें उस समय दूसरे अधोभूस्तारी को आगे वृद्धि करने देना चाहिए। मातृ पौधे का फल तोड़ने के पष्चात काट देना चाहिए। उस समय पहला अधोभूस्तारी जो 5 माह का होता है, मातृ पौधे का स्थान ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार से 6-6 महीने बाद एक-एक अधोभूस्तारी की वृद्धि करके इसकी बहुवर्षीय फसल को नियमानुसार किया जा सकता है। ऐसा करते रहने से केला के प्रकन्दों के मध्य आन्तरिक प्रतिस्पर्धा नहीं होती है।। परिणाम स्वरूप बड़ी, गुणवत्तायुक्त घौद, कम समय में प्राप्त होती हैं।

विशेष शस्य क्रियाएँ
पत्तियों की कटाई-छटाई

पौधा जैसे-जैसे वृद्धि करता है नीचे की पत्तियों सूखती जाती है। सूखी पत्तियों से फल भी क्षतिग्रस्त होते रहते हैं। सूखी एवं रोगग्रस्त पत्तियों को तेज चाकू से समय-समय पर काटते रहना चाहिए। इस क्रिया से रोग की सान्ध्रता भी घटती है। रोग का फैलाव घटता है। हवा एवं प्रकाश  नीचे तक पहुचता रहता है, जिससे कीटों की संख्या में भी कमी होती है। अधिकतम उपज के लिए स्वस्थ 13-15 पत्तियों ही पर्याप्त होती है।

मिट्टी चढ़ाना
पौधों पर वर्षा ऋतु के  बाद सदैव मिट्टी चढ़ाना चाहिए, क्योंकि पौधों के चारों तरफ की मिट्टी धुल जाती है, तथा  पौधों में घौद निकलने से नीचे का सिरा भारी होकर, तेज हवा में पौधा उलट जाता है।

सहारा देना
केला की खेती को तेज हवाओं से भी भारी खतरा बना रहता है। लम्बी प्रजातियों  में सहारा देना अति आवष्यक है। केले के फलों का गुच्छा (घौद) भारी होने के कारण पौधे नीचे की तरफ झुक जाते है, अगर उनको सहारा नहीं दिया जाता है तो वे उखड़ भी जाते हैं। अतः उनको दो  बासों को आपस में बाँधकर कैंची की तरह बना लेते हैं तथा फलों के गुच्छे को लगाकर सहारा देते हैं। गहर निकलते समय सहारा देना अति आवष्यक है।

गुच्छों को ढ़कना एवं नर पुष्प की कटाई
पौधों में  गहर आ जाने पर वे एक तरफ झुक जाते हैं, यदि उनका झुकाव पूर्व या दक्षिण की तरफ होता है, तो फल तेज घुप से खराब हो जाता है। अतः केले के घौद को पौधे की उपर वाली पत्तियों  से ढ़क देना चाहिए। गहर का अग्र भाग जो नर पुष्प होता है, बिना फल पैदा किये बढ़ता रहता है। गहर में फल पूर्ण मात्रा में लग जाने के पश्चात् उनको काट कर अलग कर देना चाहिए, जिससे वह भोज्य पदार्थ लेकर फलों की वृद्धि को अवरूद्ध न कर सके तथा इसको बेच कर अतिरिक्त आय प्राप्त किया जा सकें, क्योंकि कही-कही पर इसका प्रयोग सब्जी बनाने में किया जाता है। नर पुष्प की कटाई बर्षात में करना और आवष्यक है क्यांेकि यही बीमारी फैलाने का कारण बनते हैं। कावेन्डीष (बसराई, रोबस्टा) तथा सिल्क (मालभोग) ग्रुप के केलों में  गहर को ढ़कना एक सामान्य क्रिया है, क्योंकि इससे केला के फल का रंग और आकर्षक हो जाता है। उष्ण एवं उपोष्ण जलवायु मे फलों को पारदर्षी छिद्रयुक्त पोलीथीन से ढ़कने से 15-20 प्रतिषत उपज में वृद्धि होती है, तथा फल 7-10 दिन पहले परिपक्व हो जाते हैं। गहर को ढ़कने का सर्बोत्तम समय जब गहर में फल बनने की प्रक्रिया रूक गई हो तथा नर पुष्प को काटने का  समय आ गया हों। उपरोक्त लाभ के अलावा ढ़कने के अन्य फायदे  है जैसे, स्कैरिंग बीटल नामक कीट फल  को गन्दा तथा अनाकर्षक बना देता है ढ़क कर फल को बचा सकते है, तथा सूर्य के प्रकाष के सीधे सम्पर्क में आने की वजह से फलों पर घाव बन जाते हैं जिसमें कोलेटोट्राइकम नामक फँफूद पैदा होता है तथा फल सड़न रोग उत्पन्न हो जाता है।

घौद के आभासी हथ्थों को काटकर हटाना
घौद में कुछ अपूर्ण हथ्थे होते है, जो गुणवक्तायुक्त  फल उत्पादन में बाधक होते है। ऐसे अपूर्ण हथ्थों को घौद से अविलम्ब काटकर हटा देना चाहिए ऐसा करने से दुसरे हथ्थों की गुणवक्तायुक्त  एवं वजन बढ़ जाती है। उपरोक्त विषेष शस्य क्रियाओं को करने मात्र में फल के गुणवत्ता में भारी वृद्धि होती है।