केला की अवस्था के अनुसार करें खाद एवं उर्वरकों (पोषण) का प्रबन्धन
केला की अवस्था के अनुसार करें खाद एवं उर्वरकों (पोषण) का प्रबन्धन

प्रोफेसर (डॉ ) एसके सिंह
प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय समन्वित फल अनुसंधान परियोजना  एवम् 
सह निदेशक अनुसंधान
डॉ राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर बिहार

केला भारी मात्रा में पोषक तत्वों का उपयोग करने वाला पौधा है तथा इन पोषक तत्वों के प्रति धनात्मक प्रभाव छोड़ता है। कुल फसल उत्पादन का लगभग 30-40 प्रतिशत लागत खाद एवं उर्वरक के रूप में खर्च होता है। उर्वरकों की मात्रा, प्रयोग का समय, प्रयोग की विधि, प्रयोग की वारम्बारता, प्रजाति, खेती करने का ढ़ंग एवं स्थान विषेश की जलवायु द्वारा निर्धारित होती है।
केला की सफल खेती हेतु सभी प्रधान एवं  सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है तथापि उनकी मात्रा उनके कार्य एवं उपलब्धता के अनुसार निर्धारित होती है। प्रमुख पोषक तत्वों में नाइट्रोजन सर्वाधिक महत्वपूर्ण पोषक तत्व है। केला का सम्पूर्ण जीवन काल को दो भागों में बाटते है , वानस्पतिक वृद्धि की अवस्था मृदा में उपलब्ध नाइट्रोजन एवं किस्म के अनुसार केला की सामान्य वानस्पतिक वृद्धि हेतु 200-250 ग्राम/पौधा देना चाहिए। नाइट्रोजन की आपूर्ति सामान्यतः यूरिया के रूप में करते हैं। इसे 2-3 टुकड़ों में देना चाहिए। वानस्पतिक वृद्धि की मुख्य चार अवस्थाएँ है जैसे, रोपण के 30, 75, 120 और 165 दिन बाद एवं प्रजननकारी अवस्था की भी मुख्य तीन अवस्था में होती हैं जैसे, 210, 255 एवं 300 दिन बाद रोपण के लगभग 150 ग्राम नत्रजन को चार बराबर भाग में बाँट कर वानस्पतिक वृद्धि की अवस्था में प्रयोग करना चाहिए, इसी प्रकार से 50 ग्राम नेत्रजन को 3 भाग में बाँट कर प्रति पौधा की दर से प्रजननकारी अवस्था में देना चाहिए। बेहतर होता कि नेत्रजन का 25 प्रतिषत सड़ी हुई कम्पोस्ट के रूप में या खल्ली के रूप में प्रयोग किया जाय। केला में फास्फोरस के प्रयोग की कम आवश्यक होती है। सुपर फास्फेट के रूप में 50-95 ग्राम/पौधा की दर से फास्फोरस देना चाहिए। फास्फोरस की सम्पूर्ण मात्रा को रोपण के समय ही दे देना चाहिए।


पोटैशियम की भूमिका केला की खेती में महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके विविध प्रभाव है। इसे खेत में सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है तथा इसकी उपलब्धता तापक्रम द्वारा प्रभावित होती है। गहर में फल लगते समय पोटाश की लगातार आपूर्ति आवश्यक है, क्योंकि गहर में फल लगने की प्रक्रिया में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। केला की वानस्पतिक वृद्धि के दौरान 100 ग्राम पोटैशियम को दो टुकड़ो में फल बनते समय देना चाहिए। 300 ग्राम पोटैशियम तक की संस्तुति प्रजाति के अनुसार किया गया है। म्यूरेट आफ पोटाश  के रूप में पोटैशियम देते है। प्लान्टेन में अन्य केलों की तुलना में ज्यादा पोटाश  प्रयोग किया जाता है। 7.5 पी. एच. मान वाली मृदा में तथा टपक सिचाई में पोटैशियम सल्फेट के रूप में पोटैशियम देना लाभदायक होता है।
कैल्सीयम, नत्रजन , फास्फोरस एवं पोटाश  के साथ प्रतिक्रिया करके अपना प्रभाव छोड़ता है। अम्लीय मृदा में भूमि सुधारक के रूप में डोलोमाइट एवं चूना पत्थर सामान्यतः प्रयोग किया जाता है। मैग्नीशियम, पौधों के क्लोरोफील बनने में तथा सामान्य वृद्धि की अवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, अतः इसकी कमी पौधों की सामान्य बढ़वार का प्रभावित करती है। पौधों में इसकी अत्याधिक कमी की अवस्था में मैग्नीशियम सल्फेट का प्रयोग करने से पौधों में कमी के लक्षण समाप्त हो जाते है। यद्यपि मृदा में सल्फर की कमी पाई जाती है, लेकिन केला की खेती में इसकी कोइ अहम भूमिका नहीं हैं। सूक्ष्म पोषक तत्वों में जिंक, आयरन, बोरान, कापर एवं मैग्नीज पौधों की सामान्य वृद्धि एवं विकास में अहम भूमिका अदा करते है। जिंक सल्फेट 0.1 प्रतिशत, बोरान 0.005 प्रतिशत तथा मैग्नीशियम 0.1 प्रतिशत एवं 0.5 प्रतिशत फेरस सल्फेट छिड़काव करने से अधिक उपज प्राप्त होती है। एजोस्पाइरीलियम एवं माइकोराइजा का भी प्रयेाग बहुत ही फायदेमन्द साबित हुआ है। अतः समन्वित पोषण प्रबन्धन पर ध्यान देना चाहिए। पोषण उपयोग क्षमता को टपक सिचाई विधि द्वारा कई गुना बढ़ाया जा सकता है। प्रभावी पोषण प्रबन्धन के लिए आवश्यक है कि किसान केला में उत्पन्न होने प्रमुख/सुक्ष्म पोषक तत्वों की कमी से उत्पन्न होने वाले लक्षणों भी भलीभाति परिचित हो ।