प्याज व लहसुन की फसल में सामान्य लगने वाले रोग
प्याज व लहसुन की फसल में सामान्य लगने वाले रोग
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A).आर्द्रगलन (डैम्पिंग आफ) :-

लक्षणः

यह बीमारी प्रायः हर जगह जहां प्याज की पौध उगायी जाती है, मिलती है व मुख्य रूप से पीथियम, फ्यूजेरियम तथा राइजोक्टोनिया कवकों द्वारा होती है। इस बीमारी का प्रकोप खरीफ मौसम में ज्यादा होता है क्योंकि उस समय तापमान तथा आर्दता ज्यादा होते हैं। यह रोग दो अवस्थाओं में होता है:

1.बीज में अंकुर निकलने के तुरन्त बाद, उसमें सड़न रोग लग जाता है जिससे पौध जमीन से उपर आने से पहले ही मर जाती है।

2.बीज अंकुरण के 10-15 दिन बाद जब पौध जमीन की सतह से उपर निकल आती है तो इस रोग का प्रकोप दिखता है। पौध के जमीन की सतह पर लगे हुए स्थान पर सड़न दिखाई देती है और आगे पौध उसी सतह से गिरकर मर जाती है।

रोकथामः

•बुवाई के लिए स्वस्थ बीज का चुनाव करना चाहिए।

•बुवाई से पूर्व बीज को थाइरम या कैप्टान 2.5 ग्राम प्रति कि.ग्रा बीज की दर से उपचारित कर लें।

•पौध शैय्या के उपरी भाग की मृदा में थाइरम के घोल (2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी) या बाविस्टीन के घोल (1.0 ग्राम प्रति लीटर पानी) से 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिए।

•जड़ और जमीन को ट्राइकोडर्मा विरडी के घोल (5.0 ग्राम प्रति लीटर पानी) से 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिए।

•पानी का प्रयोग कम करना चाहिए। खरीफ मौसम में पौधशाला की क्यारियां जमीन की सतह से उठी हुई बनायें जिससे कि पानी इकट्ठा न हो।

ख. प्याज व लहसुन की खेत में लगने वाले पर्णीय रोग:

B).बैंगनी धब्बा रोग (परपल ब्लाच):-

लक्षणः

प्रायः यह बीमारी प्याज एवं लहसुन उगाने वाले सभी क्षेत्रों में पायी जाती है। इस बीमारी का कारण आल्टरनेरिया पोरी नामक कवक (फफूंद) है। यह रोग प्याज की पत्तियों, तनों तथा बीज डंठलों पर लगती है। रोग ग्रस्त भाग पर सफेद भूरे रंग के धब्बे बनते हैं जिनका मध्य भाग बाद में बैंगनी रंग का हो जाता है। रोग के लक्षण के लगभग दो सप्ताह पश्चात इन बैंगनी धब्बों पर पृष्ठीय बीजाणुओं के बनने से ये काले रंग के दिखाई देते हैं। अनुकूल समय पर रोगग्रस्त पत्तियां झुलस जाती हैं तथा पत्ती और तने गिर जाते हैं जिसके कारण कन्द और बीज नहीं बन पाते।

रोकथामः

•अच्छी रोग प्रतिरोधी प्रजाति के बीज का प्रयोग करना चाहिए।

•2-3 साल का फसल-चक्र अपनाना चाहिए। प्याज से संबंधित चक्र शामिल नहीं करना चाहिए।

•पौध की रोपाई के 45 दिन बाद 0.25 प्रतिशत डाइथेन एम-45 या सिक्सर या 0.2 प्रतिशत धानुकाप या ब्लाइटाक्स-50 का चिपकने वाली दवा मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। यदि बीमारी का प्रकोप ज्यादा हो तो छिड़काव 3-4 बार प्रत्येक 10-15 दिन के अन्तराल पर करना चाहिए।

C).झुलसा रोग (स्टेमफीलियम ब्लाइट):-

लक्षणः

यह रोग स्टेमफीलियम बेसिकेरियम नामक कवक द्वारा फैलता है। यह रोग पत्तियों और बीज के डंठलों पर पहले छोटे-छोटे सफेद और हलके पीले धब्बों के रूप में पाया जाता है । बाद में यह धब्बे एक-दूसरे से मिलकर बड़े भूरे रंग के धब्बों में बदल जाते हैं और अन्त में ये गहरे भूरे या काले रंग के हो जाते हैं। पत्तियां धीरे-धीरे सिरे की तरफ से सूखना शुरू करती हैं और आधार की तरफ बढ़कर पूरी सूख कर जल जाती हैं और कन्दों का विकास नहीं हो पाता।

रोकथामः

•स्वस्थ एवं अच्छी प्रजाति के बीज का प्रयोग करना चाहिए।

•लम्बा फसल-चक्र अपनाना चाहिए।

•पौध की रोपाई के 45 दिनों के बाद 0.25 प्रतिशत मैनकोजेब (डाइथेन एम-45) या सिक्सर (डाइथेन एम-45 $ कार्बन्डाजिम) अथवा 0.2-0.3 प्रतिशत कॉपर आक्सीक्लोराइड (ब्लाइटाक्स- 50) का छिड़काव प्रत्येक 15 दिन के अन्तराल पर 3-4 बार करना चाहिए।

•जैविक विधियों का प्रयोग करना चाहिए।

D).मृदुरोमिल आसिता (डाउनी मिल्डयू):-

लक्षणः

यह बीमारी पेरेनोस्पोरा डिस्ट्रक्टर नामक फफूंद के कारण होती है व जम्मू-कश्मीर तथा उत्तरी मैदानी भागों में पाई जाती है। इसके लक्षण सुबह जब पत्तियों पर ओस हो तो आसानी से देखे जा सकते है। पत्तियों तथा बीज डंठलों की सतह पर बैंगनी रोयेंदार वृद्धि इस रोग की पहचान है। रोग की सर्वांगी दशाओं में पौधा बौना हो जाता है। रोगी पौधे से प्राप्त कन्द आकार में छोटे होते हैं तथा इनकी भंडारण अवधि कम हो जाती है।

रोकथाम:

•हमेशा अच्छी प्रजाति के बीजों का इस्तेमाल करना चाहिए।

•पौध को लगाने से पहले खेतों की अच्छी तरह से जुताई करना चाहिए जिससे उसमें उपस्थित रोगाणु नष्ट हो जाये।

•बीमारी का प्रकोप होने पर 0.25 प्रतिशत मैनकोजेब अथवा कासु-बी या 0.2 प्रतिशत सल्फर युक्त कवकनाशी का घोल बनाकर 15 दिन के अन्तराल पर दो से तीन बार छिड़काव करना चाहिए।

E).प्याज का कण्ड (स्मट):-

लक्षणः

इस रोग में रोगग्रस्त पत्तियों और बीज पत्तों पर काले रंग के फफोले बनते है जो बाद में फट जाते हैं और उसमें से रोगजनक फंफूदी के असंख्य बीजाणु काले रंग के चूर्ण के रूप में बाहर निकलते हैं और दूसरे स्वस्थ पौधों में रोग फैलाने में सहायक होते हैं। यह बीमारी यूरोस्स्टिीस सीपली नामक फंफूद से फैलती है।

रोकथामः

•हमेशा स्वस्थ एवं उत्तम कोटि के बीजों का इस्तेमाल करना चाहिए।

•बीज को बोने से पूर्व थाइरम या कैप्टान 2.0-2.5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. की दर से उपचारित करें।

•दो-तीन वर्ष का फसल-चक्र अपनाना चाहिए।

ग. प्याज व लहसुन के भण्डारण के दौरान लगने वाली बीमारियां

F).आधार विगलन :-

लक्षणः

यह रोग फ्यूजेरियम आक्सिस्पोरम स्पी. नामक कवक से होता है। इससे कन्द के जड़ के पास वाला भाग सड़ने लगता है और उस पर सफेद रंग के कवकतन्तु दिखाई देते हैं। इन पर कभी-कभी गुलाबी रंग की छटा दिखायी देती है। गर्म एवं उष्ण जलवायु मे इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। रोग जनक मिट्टी में रहते हैं तथा खेत से भण्डारण में पहुंचते हैं। खराब जल निकासी, भारी जमीन, परिपक्वता के बाद बारिश होने या सिंचाई करने से इस बीमारी का प्रकोप बढ़ता है।

रोकथाम:

•उचित फसल चक्र अपनाने तथा एक ही जमीन पर बार-बार फसल नहीं लगाने पर रोग का प्रकोप कम होता है।

•कन्दों को कार्बेन्डाजिम 2.0 ग्राम/लीटर के घोल में डुबाकर लगाना चाहिए।

•लगाने से पूर्व क्षतिग्रस्त तथा बीमारीग्रस्त कन्दों को अलग कर नष्ट कर देना चाहिए।

•पिछली फसलों के अवशेषों को जलाकर नष्ट करना चाहिए तथा गर्मियों में गहरी जुताई करनी चाहिए।

G).ग्रीवा विगलन :-

लक्षणः

यह बोट्राइटिस आली नामक कवक से होता है। कवक के प्रकोप से कन्द तने के पास से सड़ने लगता है और धीरे-धीरे पूरा कन्द सड़ जाता है। प्रभावित भाग मुलायम तथा रंगहीन हो जाते हैं। यह बीमारी मुख्यतया बीज से फैलती है। बीमारी कन्द बनने के दौरान नहीं पहचानी जा सकती है। लेकिन रोगाणु इसी दौरान कन्दों में प्रवेश करते हैं और भण्डारण के दौरान बीमारी फैलाते हैं।

रोकथामः

•बीज उत्पादन के लिए कन्द तैयार करने वाले बीज को थाइरम, कैप्टान या बाविस्टीन से उपचारित करना चाहिए।

•कन्दों की गर्दन कटाई करते समय लम्बी डण्डियाँ (2.0-2.5 से.मी.) छोड़नी चाहिए।

•कन्दों को लगाने से पूर्व कार्बेन्डाजिम (2.0 ग्राम प्रति लीटर) के घोल से उपचारित करना चाहिए।

•उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए।

H).काली फंफूदी :-

लक्षणः

यह एसपरजिलस नाइजर नामक कवक से होता है। इससे प्याज या लहसुन के बाहरी शल्कों में काले रंग के धब्बे बनते हैं और धीरे-धीरे सारा भाग काला हो जाता है एवं कन्द बिक्री योग्य नहीं रह जाते। बाहर के प्रभावित शल्क निकालने से कन्द खुले हो जाते है और बाजार में कम भाव पर बिकते हैं। प्याज या लहसुन को अच्छी तरह से नहीं सुखने तथा भण्डारण में अधिक नमी के कारण इस रोग की समस्या बढ़ती है।

रोकथामः

•कन्दों को छाया में अच्छी तरह सुखाना चाहिए।

•भण्डारण हमेशा ठण्डे व शुष्क स्थानों पर करना चाहिए।

•भण्डारण से पूर्व भण्डार गृहों को अच्छी प्रकार से रसायनों द्वारा उपचारित कर लेना चाहिए।

नीली फंफूदी

लक्षणः

यह रोग पेनीसीलियम स्पेसीज नामक कवक से होता है। इससे प्याज एवं लहसुन पर हल्के-पीले रंग के निशान बनते हैं, जो धीरे-धीरे नीले रंग के हो जाते हैं और प्रभावित भाग सड़ने लगता है। इसके कारण प्याज पीले हो जाते है।

रोकथामः

•कन्दों को घावों या रगड़ने से बचाना चाहिए।

•कम तापमान तथा उचित नमी पर यह बीमारी नहीं आती है।

I).जीवाणु सड़न:-

लक्षणः

यह रोग विभिन्न प्रकार के जीवाणु जैसे इरविनिया, स्यूडोमोनास, लेक्टोबेसिलस आदि से होता है। ये जीवाणु खेत में या भण्डार गृहों में रहते हैं तथा उपयुक्त वातावरण मिलने पर इनकी वृद्धि होती है। प्रभावित प्याज के कन्द बाहर से अच्छे लगते है परन्तु बीच का भाग तथा शल्क सड़ जाते हैं। उसको दबाने पर उनसे बदबूदार द्रव निकलता है। खरीफ मौसम के प्याज में यह अधिक पाया जाता है। अधिक वर्षा होने से खेत में पानी भर जाने से यह रोग अधिक होता है।

रोकथामः

•उचित जल निकासी की व्यवस्था होनी चाहिए।

•ताम्रयुक्त जीवाणु नाशकों के खेत में प्रयोग से बीमारी को नियोजित किया जा सकता है।

•प्याज को अच्छी तरह से सुखाकर भण्डारण करना चाहिए।

J).प्रस्फुटन :-

लक्षणः

यह एक विकृति है जिसमें प्याज के कन्दों से दुबारा पत्तियां निकलने लगती हैं। इसके कारण कन्दों के वजन में तीव्र गिरावट होती है तथा कन्द पीले होने लगते हैं। खाने योग्य भाग के पत्तियां बनने में प्रयोग होने से ये खाने योग्य नहीं रह जाते हैं। प्रस्फुटन मुख्यतया किस्मों के आनुवंशिक गुण से निर्धारित होता है। अधिक नमीयुक्त वातावरण तथा कम तापमान से यह समस्या बढ़ती है। यह समस्या मुख्य रूप से खरीफ मौसम में उगायी जाने वाली प्याज में ज्यादा होती है।

रोकथाम:

•खुदाई करने के 3-4 सप्ताह पहले मैलिकहाईड्राजाईड (2500 पी.पी.एम.) का छिड़काव करना चाहिए।

•कन्द सूखने के बाद गामा विकिरण से उपचारित करने से इसे नियंत्रित किया जा सकता है।

K).प्याज व लहसुन प्रमुख कीट:-

1)चूसक कीट (थ्रिप्स टेबेसाई) :- 

ये आकर मे छोटे व 1-2 मि.मी. लम्बे कोमल कीट होते हैंI ये कीट सफ़ेद-भूरे या हल्के पीले रंग के होते हैंI इनके मुखांग रस चूसने वाले होते हैं जो कि सैंकड़ों कि संख्या मे पौधों कि पत्तियों के कक्ष (कपोलों) के अन्दर छिपे रहते हैंI

इस कीट के निम्फ एवं प्रौढ़ दोनों ही अवस्थायें मुलायम पत्तियों का रस चूस कर उन्हें क्षति पहुँचाती हैंI इस कीट से प्रभावित पत्तियों में जगह जगह पर सफ़ेद धब्बे दिखाई देते हैंI इनका अधिक प्रकोप होने पर पत्तियां सिकुड़ जाती है और पौधों की बढ़वार रुक जाती है तथा प्रभावित पौधों के कंद छोटे रह जाते हैं जिससे उपज मे कमी हो जाती हैI

प्रबंधन:

•इन कीटों का संक्रमण दिखाई देने पर नीम द्वारा निर्मित कीटनाशी (जैसे ईकोनीम, निरिन या ग्रेनीम) 3-5 मि.ली. प्रति लीटर पानी की दर से आवश्यकतानुसार घोल तैयार कर शाम के समय फसल पर 10-12 दिनों के अंतराल पर 2-3 छिड़काव करें या

•डाईमेथोऐट 30 ई.सी. 650 मि.ली./600 ली. पानी के साथ या मेटासिस्टॉक्स 25 ई.सी. 1ली./600 ली. पानी के साथ या इमिडाक्लोप्रिड 8 एस.एल. 30 ई. सी. 5 मि.ली./ 15 ली. पानी के साथ छिड़काव करेंI

2)प्याज की मक्खी / मैगट (हाईलिमिया ऐंटीकुआ) :-

यह मक्खी प्याज की फसल का प्रमुख हानिकारक कीट है जो अपने मैगट पौधों के भूमि के पास वाले भाग, आधारीय तने में दिए जाते हैंI मैगटों की संख्या 2-4 तक हो सकती हैI इनसे भूमि के पास वाले तने का भाग सड़कर नष्ट हो जाने से पूरा पौधा सूख जाता हैI कभी - कभी इस कीट द्वारा फसल को भारी मात्रा मे क्षति होती हैI

प्रबंधन:

•फसल की रोपाई पूर्व, खेत की तैयारी करते समय नीम की खली/ खाद 3-4 क्विं. प्रति एकड़ की दर से जुताई कर भूमि मे मिलाएंI

•खेत की तैयारी करते समय कीटनाशी क्लोरोपाईरिफॉस 5 प्रतिशत या मिथाईल पैराथियान 2 प्रतिशत की दर से जुताई करते समय भूमि मे मिलाएं ततपश्चात फसल की रोपाई करेंI

•खड़ी फसल मे इस कीट (मैगट) का संक्रमण दिखाई देने पर कीटनाशी क़्वीनालफॉस २ मि.ली. प्रति लीटर पानी की दर से आवश्यकतानुसार मात्रा में घोल तैयार कर शाम के समय २-३ छिड़काव करेंI

नोट: फसल पकने या कन्द विकसित होने की अवस्था में किसी भी दैहिक कीटनाशियों का इस्तेमाल न करेंI