kisan

Betel Leaf (पान)

Basic Info

परिचय
पान एक बहुवर्षीय बेल है, जिसका उपयोग हमारे देश में पूजा-पाठ के साथ-साथ खाने में भी होता है। ऐसा लोक मत है कि पान खाने से मुख शुद्ध होता है, भारत वर्ष में पान की खेती प्राचीन काल से ही की जाती है। इसे संस्कृत में नागबल्ली, ताम्बूल हिन्दी भाषी क्षेत्रों में पान मराठी में पान/नागुरबेली, गुजराती में पान/नागुरबेली तमिल में बेटटीलई,तेलगू में तमलपाकु, किल्ली, कन्नड़ में विलयादेली और मलयालम में बेटीलई नाम से पुकारा जाता है। पान की खेती बांग्लादेश, श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर,थाईलैण्ड, फिलीपिंस, पापुआ, न्यूगिनी आदि में भी सफलतापूर्वक की जाती है। भारत में बेताल पत्ती को "पान" के नाम से जाना जाता है और पान के पत्ते गहरे हरे रंग के होते हैं, जो दिल के आकार के होते हैं जो भारत में व्यापक रूप से उपयोग किए जाते हैं और पान का वैज्ञानिक नाम पाइपर बीटल है। पान का संबंध पाइपरेसी के परिवार से है। दुनिया में सुपारी की 90 से अधिक किस्में हैं, जिनमें से लगभग 45 भारत में और 30 किस्में पश्चिम बंगाल में पाई जाती हैं। पान को इसकी सदा हरी पत्तियों के लिए उष्णकटिबंधीय और उपप्रकार में उगाया जाता है जो पूजा / धार्मिक आयोजनों में और चबाने वाले उत्तेजक के रूप में उपयोग किया जाता है।

भारत में पान के स्थानीय नाम
तमलपाकु (तेलुगु), वेत्रिलई (तमिल), कवला (कन्नड़), बीदा / पान (हिंदी), विद्याचे पान, नागिनिच पान (मराठी), वेटिला (मलयालम)। पान (बंगाली), तमुल (असामी), नागरवेल ना पान (गुजराती)।

पान के औषधीय गुण
पान अपने औषधीय गुणों के कारण पौराणिक काल से ही प्रयुक्त होता रहा है। आयुर्वेद के ग्रन्थ सुश्रुत संहिता के अनुसार पान गले की खरास एवं खिचखिच को मिटाता है। यह मुंह के दुर्गन्ध को दूर कर पाचन शक्ति को बढ़ाता है, जबकि कुचली ताजी पत्तियों का लेप कटे-फटे व घाव के सड़न को रोकता है।

वानस्पतिक विवरण
पान एक लताबर्गीय पौधा है, जिसकी जड़ें छोटी कम और अल्प शाखित होती है। जबकि तना लम्बे पोर, चोडी पत्तियों वाले पतले और शाखा बिहीन होते हैं। इसकी पत्तियों में क्लोरोप्लास्ट की मात्रा अधिक होती है। पान के हरे तने के चारों तरफ 5-8 सेमी0 लम्बी,6-12 सेमी0 छोटी लसदार जडें निकलती है, जो बेल को चढाने में सहायक होती है।

Seed Specification

पान की प्रमुख प्रजातियां
उत्तर भारत में मुख्य रूप से जिन प्रजातियों का प्रयोग किया जाता है, वे निम्न है- देशी, देशावरी, कलकतिया, कपूरी, बांग्ला, सौंफिया, रामटेक, मघई, बनारसी आदि।

पान खेती की विधि
उत्तर भारत में पान की खेती हेतु कर्षण क्रियायें 15 जनवरी के बाद प्रारम्भ होती है। पान की अच्छी खेती के लिये जमीन की गहरी जुताई कर भूमि को खुला छोड देते हैं। उसके बाद उसकी दो उथली जुताई करते हैं, फिर बरेजा का निर्माण किया जाता है। यह प्रक्रिया 15-20 फरवरी तक पूर्ण कर ली जाती है। अच्छी खेती के लिये पंक्ति से पंक्ति की उचित दूरी रखना आवश्यक है। इसके लिये आवश्यकतानुसार पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30×30 सेमी0 या 45×45 सेमी0 रखी जाती है।

भूमि शोधन
पान की फसल को प्रभावित करने वाले जीवाणु व फंफूद को नष्ट करने के लिये पान कलम को रोपण के पूर्व भूमि शोधन करना आवश्यक है।

कलमों का उपचार
पान के कलमों को रोपाई के समय के साथ-साथ प्रबर्द्वन के समय भी उपचार  की आवश्यकता होती है। इसके लिये बुवाई के पूर्व भी मृदा उपचारित करने हेतु 50 प्रतिशत बोर्डा मिश्रण के साथ 500 पी0पी0एम0 स्ट्रेप्टोसाईक्लिन का प्रयोग करते हैं। उसके बाद बुवाई के पूर्व भी उक्त मिश्रण का प्रयोग बेलों को फफूंद व जीवाणुओं से बचाने के लिये किया जाता है। 

सहारा देना
पान की खेती के लिये यह एक महत्तवपूर्ण कार्य है। पान की कलमें जब 6 सप्ताह की हो जाती है तब उन्हें बांस की फन्टी,सनई या जूट की डंडी का प्रयोग कर बेलों को ऊपर चढाते हैं। 7-8 सप्ताह के उपरान्त बेलों से कलम के पत्तों को अलग किया जाता है, जिसे ”पेडी का पान“ कहते है। बाजार में इसकी विशेष मांग होती है तथा इसकी कीमत भी सामान्य पान पत्तों से अधिक होती है। इस प्रकार 10-12 सप्ताह बाद जब पान बेलें 1.5-2 फीट की होती है, तो पान के पत्तों की तुडाई प्रारम्भ कर दी जाती है। जब बेजें 2.5-3 मी0 या 8-10 फीट की हो जाती है, तो बेलों में पुनः उत्पादन क्षमता विकसित करने हेतु उन्हें पुनर्जीवित किया जाता है। इसके लिये 8-10 माह पुरानी बेलों को ऊपर से 0.5-7.5 सेमी0 छोडकर 15-20 सेमी0 व्यास के छल्लों के रूप में लपेट कर सहारे के जड के पास रख देते हैं व मिटटी से आंशिक रूप से दबा देते है व हल्की सिंचाई कर देते हैं।

Land Preparation & Soil Health

जलवायु
अच्छे पान की खेती के लिये जलवायु की परिस्थितियां एक महत्वपूर्ण कारक हैं। इसमें पान की खेती के लिये उचित तापमान,आर्द्रता,प्रकाश व छाया,वायु की स्थिति,मृदा आदि महत्तवपूर्ण कारक हैं।

पान की उत्तम खेती के लिये जलवायु के विभिन्न घटकों की आवश्यकता होती है। जिनका विवरण निम्न है-
1. तापमान: पान का बेल तापमान के प्रति अति संवेदनशील रहता है। पान के बेल का उत्तम विकास उन क्षेत्रों में होता है, जहां तापमान में परिवर्तन मध्यम और न्यूनतम होता है। पान की खेती के लिये उत्तम तापमान 28-35 डिग्री सेल्सियस तक रहता है।
2. प्रकाश एवं छाया: पान की खेती के लिये अच्छे प्रकाश व उत्तम छाया की आवश्यकता पडती है। सामान्यतः 40-50 प्रतिशत छाया तथा लम्बे प्रकाश की अवधि की आवश्यकता पान की खेती को होती   है।
3. आर्द्रता: अच्छे पान की खेती के लिये अच्छे आर्द्रता की आवश्यकता होती है। उल्लेखनीय है कि पान बेल की बृद्वि सर्वाधिक वर्षाकाल में होती है, जिसका मुख्य कारण उत्तम आर्द्रता का होना है। अच्छे आर्द्रता की स्थिति में पत्तियों में पोषक तत्वों का संचार अच्छा होता है।
4. वायु: उल्लेखनीय है कि वायु की गति वाष्पन के दर को प्रभावित करने वाली मुख्य घटक है। पान के खेती के लिये जहां शुष्क हवायें नुकसान पहुंचाती है, वहीं वर्षाकाल में नम और आर्द्र हवायें पान की खेती के लिये अत्यन्त लाभदायक होती है।
5. मृदा: पान की अच्छी खेती के लिये महीन हयूमस युक्त उपजाऊ मृदा अत्यन्त लाभदायक होती है। वैसे पान की खेती देश के विभिन्न क्षेत्रों में बलुई, दोमट, लाल व एल्युबियल मृदा व लेटैराईट मृदा में भी सफलतापूर्वक की जाती है। पान की खेती के लिये उचित जल निकास वाले प्रक्षेत्रों की आवश्यकता होती है।


खेत की तैयारी
पान की अच्छी खेती के लिये जमीन की गहरी जुताई कर भूमि को खुला छोड देते हैं। उसके बाद उसकी दो उथली जुताई करते हैं, फिर बरेजा का निर्माण किया जाता है। यह प्रक्रिया 15-20 फरवरी तक पूर्ण कर ली जाती है।

Crop Spray & fertilizer Specification

खाद एवं रासायनिक उर्वरक
पान के बेलों को अच्छा पोषक तत्व प्राप्त हो इसके लिये प्रायः पान की खेती में उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है। पान की खेती में प्रायः कार्बनिक तत्वों का प्रयोग करते हैं। उत्तर भारत में सरसों ,तिल,नीम या अण्डी की खली का प्रयोग किया जाता है, जो जुलाई-अक्टूबर में 15 दिन के अन्तराल पर दिया जाता है। वर्षाकाल के दिनों में खली के साथ थोडी मात्रा में यूरिया का प्रयोग भी किया जाता है।

प्रमुख रोग:
(1) पर्ण/गलन रोग: यह फंफूद जनित रोग है, जिसका मुख्य कारक “फाइटोफ्थोरा पैरासिटिका” है। इसके प्रयोग से पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं, जो वर्षाकाल के समाप्त होने पर भी बने रहते हैं। ये फलस को काफी नुकसान पहुंचाते हैं।
रोकथाम के उपायें:
- रोग जनित पौधों को उखाडकर पूर्ण रूप से नष्ट कर देना चाहिये।
- इस रोग के मुख्य कारक सिंचाई है। अतः शुद्व पानी का प्रयोग करना चाहिये।
- वर्षाकाल में 0.5 प्रतिशत सान्द्रण वाले बोर्डोमिश्रण या ब्लाइटैक्स का प्रयोग करना चाहिये।
(2) तनगलन रोग: यह भी फंफूद जनित रोग है, जिसका मुख्य कारक “फाइटोफ्थोरा पैरासिटिका” के पाइपरीना नामक फंफूद है। इससे बेलों के आधार पर सडन शुरू हो जाती है। इसके प्रकोप से पौधो अल्पकाल में ही मुरझाकर नष्ट हो जाता है।
रोकथाम के उपायें:
- बरेजों में जल निकासी की उचित व्यवस्था करना चाहिये।
- रोगी पौधों को जड से उखाडकर नष्ट कर देना चाहिये।
- नये स्थान पर बरेजा निर्माण करें।
- बुवाई से पूर्व बोर्डोमिश्रण से भूमि शोधन करना चाहिये।
- फसल पर रोग लक्षण दिखने पर 0.5 प्रतिशत बोर्डोमिश्रण का छिडकाव करना चाहिये।
(3) ग्रीवा गलन या गंदली रोग: यह भी फंफूदजनित रोग है, जिनका मुख्य कारक “स्केलरोशियम सेल्फसाई” नामक फंफूद है। इसके प्रकोप से बेलों में गहरे घाव विकसित होते है, पत्ते पीले पड़ जाते हैं व फसल नष्ट हो जाती है।
रोकथाम के उपायें:
- रोग जनित बेल को उखाडकर पूर्ण रूप से नष्ट कर देना चाहिये।
- फसल के बुवाई के पूर्व भूमि शोधन करना चाहिये।
- फसल पर प्रकोप निवारण हेतु डाईथेन एम.-45 का 0.5 प्रतिशत घोल का छिडकाव करना चाहिये।
(4) पर्णचित्ती/तना श्याम वर्ण रोग: यह भी फंफूद जनित रोग है, जिसका मुख्य कारक “कोल्लेटोट्राइकम कैटसीसी” है। इसका संक्रमण तने के किसी भी भाग पर हो सकता है। प्रारम्भ में यह छोटे-काले धब्बे के रूप में प्रकट होते हैं, जो नमी पाकर और फैलते हैं। इससे भी फसल को काफी नुकसान होता है।
रोकथाम के उपायें:
- 0.5 प्रतिशत बोर्डोमिश्रण का प्रयोग करना चाहिये।
- सेसोपार या बावेस्टीन का छिडकाव करना चाहिये।
(5) पूर्णिल आसिता या;च्वूकतल डपसकमूद्ध रोग: यह भी फंफूद जनित रोग है, जिसका मुख्य कारक ”आइडियम पाइपेरिस“ जनित रोग हैं। इसमें पत्तियों पर प्रारम्भ में छोटे सफेद से भूरे चूर्णिल धब्बों के रूप में दिखयी देते हैं। ये फसल को काफी नुकसान पहुंचाते हैं।
रोकथाम के उपायें:
- फसल पर प्रकोप दिखने के बाद 0.5 प्रतिशत घोल का छिडकाव करना चाहिये।
- केसीन या कोलाइडी गंधक का प्रयोग करना चाहिये।
(6) जीवाणु जनित रोग: पान के फसल में जीवाणु जनित रोगों से भी फसल को काफी नुकसान होता है। पान में लगने वाले जीवाणु जनित मुख्य रोग निम्न है:-
(क)- लीफ स्पॉट या पर्ण चित्ती रोग: इसका मुख्य कारक ”स्यूडोमोडास बेसिलस“ है। इसके प्रकोप होने के बाद लक्षण निम्न प्रकार दिखते हैं। इसमें पत्तियों पर भूरे गोल या कोणीय धब्बे दिखाई पडती है, जिससे पौधे नष्ट हो जाते हैं।
रोकथाम के उपायें:
- इसके नियंत्रण के लिये ”फाइटोमाइसीन तथा एग्रोमाइसीन-100“ ग्लिसरीन के साथ प्रयोग करना चाहिये।
(ख)- तना कैंसर: यह लम्बाई में भूरे रंग के धब्बे के रूप में तने पर दिखायी देता है। इसके प्रभाव से तना फट जाता है।
रोकथाम के उपायें:
- इसके नियंत्रण के लिये 150 ग्राम प्लान्टो बाईसिन व 150 ग्राम कॉपर सल्फेट का घोल 600 ली0 में मिलाकर छिडकाव करना चाहिये।
- 0.5 प्रतिशत बोर्डोमिश्रण का छिडकाव करना चाहिये।
(ग)- लीफ ब्लाईट: इस प्रकोप से पत्तियों पर भूरे या काले रंग के धब्बे बनते हैं, जो पत्तियों को झुलसा देते हैं।
रोकथाम के उपायें:
- इसके नियंत्रण के लिये स्ट्रेप्टोसाईक्लिन 200 पी0पी0एम0 या 0.25 प्रतिशत बोर्डोमिश्रण का छिडकाव करना चाहिये।

पान की खेती को अनेक प्रकार के कीटों का प्रकोप होता है, जिससे पान का उत्पादन प्रभावित होता है। पान की फसल को प्रभावित करने वाले प्रमुख कीटो का विवरण निम्न है:
(1.) बिटलबाईन बग: जून से अक्टूबर के मध्य दिखायी देने वाला यह कीट पान के पत्तों को खाता है तथा पत्तों पर विस्फोटक छिद्र बनाता है। यह पान के शिराओें के बीच के ऊतकों को खा जाता है, जिससे पत्तों में कुतलन या सिकुडन आ जाती है और अंत में बेल सूख जाती है।
उपचार: इसके नियंत्रण के लिये तम्बाकू की जड का घोल 01 लीटर घोल का 20 ली0 पानी में घोल तैयार कर छिडकाव करना चाहिये। 0.04 प्रतिशत सान्द्रता वाले एनडोसल्फान या मैलाथियान का प्रयोग करना चाहिये।
(2.) मिली बग: यह हल्के रंग का अंडाकार आकार वाला 5 सेमी0 लंबाई का कीट है, जो सफेद चूर्णी आवरण से ढ़का होता है। यह समूह में होते हैं व पान के पत्तों के निचले भाग में अण्डे देता है, जिस पर उनका जीवन चक्र चलता है। इनका सर्वाधिक प्रकोप वर्षाकाल में होता है। इससे पान के फसल को काफी नुकसान होता है।
उपचार: इसको नियंत्रित करने के लिये 0.03-0.05 प्रतिशत सान्द्रता वाले मैलाथिया्रन घोल का छिडकाव आवश्यकतानुसार करना चाहिये।
(3.) श्वेत मक्खी: पान के पत्तों पर अक्टूबर से मार्च के बीच दिखने वाला यह कीट 1-1.5 मिमी. लम्बाई व 0.5-1 मिमी. चौड़ाई के शंखदार होता है। यह कीट पान के नये पत्तों के निचले सतह को खाता है, जिसका प्रभाव पूरे बेल पर पडता है। इसके प्रकोप से पान बेल का विकास रूक जाता है व पत्ते हरिमाहीन होकर बेकार हो जाते हैं।
उपचार: इसके नियंत्रण हेतु 0.02 प्रतिशत रोगार या डेमोक्रान का छिडकाव पत्तों पर करना चाहिये।
(4.) लाल व काली चीटियां: ये भूरे लाल या काले रंग की चीटियां होती है, जो पान के पत्तों व बेलों को नुकसान पहुंचाती है। इनाक प्रकोप तब होता है जब माहूं के प्रकोप के बाद उनसे उत्सर्जित शहद को पाने के लिये ये आक्रमण करती है।
नियंत्रण व उपचार: इनको नियंत्रित करने के लिये 0.02 प्रतिशत डेमोक्रॅान या 0.5 प्रतिशत सान्द्रता वाले मैलाथियान का प्रयोग करना चाहिये।
(5.) सूत्रकृमि: पान में सूत्रकृमि का प्रकोप भी होता है। ये सर्वाधिक नुकसान पान बेल की जड़ व कलमों को करते हैं।
नियंत्रण व उपचार: इनको नियंत्रित करने के लिये कार्वोफ्युराम व नीमखली का प्रयोग करना चाहिये। मात्रा निम्न है: कार्बोफ्युराम 1.5 किग्रा. प्रति है. या नीमखली की 0.5 टन मात्रा में 0.75 किग्रा. कार्वोफ्युराम का मिश्रण बनाकर पान की खेती में प्रयुक्त करना चाहिये।

Weeding & Irrigation

सिंचाई व जल निकास व्यवस्था
उत्तर भारत में प्रति दिन तीन से चार बार (गर्मियों में) जाडों में दो से तीनबार सिंचाई की आवश्यकता होती है। जल निकास की उत्त व्यवस्था भी पान की खेती के लिये आवश्यक है। अधिक नमी से पान की जडें सड जाती है, जिससे उत्पादन प्रभावित होता है। अतः पान की खेती के लिये ढालू नुमा स्थान सर्वोत्तम है।

खरपतवार नियंत्रण व मेडें बनाना
पान की खेती में अच्छे उत्पादन के लिये समय-समय पर उसमें निराई-गुडाई की आवश्यकता होती है। बरेजों से अनावश्यक खरपतवार को समय-समय पर निकालते रहना चाहिये। इसी प्रकार सितम्बर, अक्टूबर में पारियों के बीच मिटटी की कुदाल से गुडाई करके 40-50 सेमी. की दूरी पर मेड बनाते हैं व आवश्यकतानुसार मिटटी चढाते हैं।

Harvesting & Storage

प्रयोग की विधि
खली को चूर्ण करके मिटटी के पात्र में भिगो दिया जाता है तथा 10 दिन तक अपघटित होने दिया जाता है। उसके बाद उसे घोल बनाकर बेल की जडों पर दिया जाता है।
मात्रा: प्रति है. 02 टन खली का प्रयोग पान की खेती के लिये पूरे सत्र में किया जाता है। उल्लेखनीय है कि प्रति है. पान बेल की आवश्यकता नाइट्रोजनःफास्फोरसःपोटेशियम का अनुपात क्रमशः 80:14:100 किग्रा. होती है, जो उक्त खली का प्रयोग कर पान बेलों को उपलब्ध करायी जाती है।

नोट
1. पान बेलों के उचित बढबार व बृद्वि के लिये सूक्ष्म तत्वों और बृद्वि नियामकों का प्रयोग भी किया जाता है।
2. भूमि शोधन हेतु बोर्डोमिश्रण के 1 प्रतिशत सान्द्रण का प्रयोग करते हैं तथा वर्षाकाल समाप्त होने पर पुनः बोर्डोमिश्रण का प्रयोग (0.5 प्रतिशत सान्द्रण) पान की बेलों पर करते हैं।

बोर्डोमिश्रण तैयार करने के विधि 
01 कि.ग्रा. चूना (बुझा चूना) तथा 01 कि.ग्रा. तुतिया अलग-2 बर्तनों में (मिटटी) 10-10 ली. पानी में भिगोकर घोल तैयार करते हैं, फिर एक अन्य मिटटी के पात्र में दोनों घोलों को लकडी के धार पर इस प्रकार गिराते हैं कि दोनों की धार मिलकर गिरे। इस प्रकार तैयार घोल बोर्डामिश्रण है। इस 20 ली. मिश्रण में 80 ली. पानी मिलाकर इसका 100 ली. घोल तैयार करते हैं व इसका प्रयोग पान की खेती में करते हैं

मिटटी का प्रयोग
पान बेल की जडें बहुत ही कोमल होती है, जो अधिक ताप व सर्दी को सहन नही कर पाती है। पान की जडों को ढकने के लिये मिटटी का प्रयोग किया जाता है। जून, जुलाई में काली मिटटी व अक्टूबर, नवम्बर में लाल मुदा का प्रयोग करते हैं।


Crop Related Disease

Description:
fungus-Phytophthora parasitica var. piperina कवक हाइलिन, गैर सेप्टेट मायसेलियम पैदा करता है। स्पोरैंगिया पतली दीवार वाली होती है, hyaline ovate या 30-40 X 15-20um मापने वाले पैपिला के आकार का सीखना। ज़ोस्पोरेस, जो हैं स्पोरैंगिया से मुक्त, गुर्दा के आकार का और बाइफ्लैगलेट होते हैं। ओस्पोर गहरे भूरे रंग के होते हैं, गोलाकार और मोटी दीवार वाली।
Organic Solution:
फसल को बढ़ावा देने के लिए नीम केक @ 40 किग्रा/एकड़ का उपयोग केवल नेमाटोड प्रभावित क्षेत्र में सुनिश्चित नमी की स्थिति में करें|
Chemical Solution:
बीज लताओं को भिगोएँ स्ट्रेप्टोसाइक्लिन 500 पीपीएम + बोर्डो मिश्रण 0.05 प्रतिशत घोल 30 मिनट के लिए। 150 किग्रा . लागू करें | नीमकेक (75 किग्रा एन) के माध्यम से एन / हेक्टेयर / वर्ष और सुपर फॉस्फेट के माध्यम से 100 किग्रा पी 2 ओ 5 और 50 किग्रा मुरेट पोटाश को 3 भागों में बांटकर, पहली लताओं को उठाने के 15 दिन बाद और दूसरी और तीसरी खुराक 40-45 दिनों के अंतराल पर। छाया में सूखे नीम के पत्ते या कैलोट्रोफिस के पत्तों को 2 टन/हेक्टेयर में 2 भागों में लगाएं| खुराक दें और इसे मिट्टी से ढक दें। संक्रमित लताओं और पत्तियों को इकट्ठा करके नष्ट कर दें। विनियमित ठंड के मौसम में सिंचाई। ०.५ प्रतिशत बोर्डो मिश्रण के साथ मिट्टी को कम करें मासिक अंतराल पर ठंडे मौसम की अवधि (अक्टूबर-जनवरी) के दौरान 500 मिली / पहाड़ी।
Description:
कवक बड़ी संख्या में एसरवुली पैदा करता है जिसमें लघु, हाइलिन कोनिडियोफोरस होते हैं और रंगीन सेटे को ब्लॉक करें। कोनिडिया सिंगल सेल, हाइलाइन और फाल्केट हैं। कवक खेत में संक्रमित पौधे के मलबे में रहता है। प्राथमिक संक्रमण है मृदा जनित कोनिडिया के माध्यम से, वर्षा जल के छींटे या छींटे सिंचाई द्वारा फैलता है। माध्यमिक क्षेत्र में फैला हुआ वायुजनित कोनिडिया द्वारा सहायता प्राप्त है।
Organic Solution:
फसल को बढ़ावा देने के लिए नीम केक @ 40 किग्रा/एकड़ का उपयोग केवल नेमाटोड प्रभावित क्षेत्र में सुनिश्चित नमी की स्थिति में करें|
Chemical Solution:
संक्रमित लताओं और पत्तियों को इकट्ठा करके नष्ट कर दें। 0.2 प्रतिशत ज़ीरम या 0.5 प्रति . का छिड़काव करें सेंट बोर्डो मिश्रण पत्तियों को तोड़ने के बाद।
Description:
कवक सफेद से धूसर माइसेलियम पैदा करता है जिसमें विपुल शाखाएं होती हैं। स्क्लेरोटिया गोलाकार चिकने और चमकदार होते हैं। संक्रमितों पर भूरे रंग की सरसों जैसी स्क्लेरोटिया दिखाई देती है लताओं के पास तना और मिट्टी।
Organic Solution:
रोग की शुरुआत में नीम के तेल का 10,000 पीपीएम छिड़काव करें। संक्रमित पौधे को शुरुआत में उखाड़ना भी एक प्रभावी तरीका हो सकता है।
Chemical Solution:
प्रभावित लताओं को जड़ सहित हटा दें और जला दें। अधिक मिट्टी लगाएं नीमकेक, सरसों की खली या खेत की खाद जैसे संशोधन। मिट्टी को 0.1 प्रतिशत से भीगें कार्बेन्डाजिम।

Betel Leaf (पान) Crop Types

You may also like

No video Found!

Frequently Asked Questions

Q1: क्या घर पर पान का पत्ता (betel leaf) उगाना अच्छा है?

Ans:

आप अपने घर में एक पान का पत्ता (betel leaf) का पौधा उगा सकते हैं लेकिन इसे बनाए रखना बहुत कठिन होगा, और यह कुछ कीटों और सांपों को भी आकर्षित करता है। यह हिंदू धर्म के अनुसार प्रमुख आध्यात्मिक पौधों में से एक है, और किसी भी विचारधारा ने इसके लिए नकारात्मकता को जिम्मेदार नहीं ठहराया है।

Q3: पान का पत्ता का उपयोग किस लिए किया जाता है?

Ans:

पान के पत्तों का उपयोग एक उत्तेजक, एक एंटीसेप्टिक और एक सांस-फ्रेशनर के रूप में किया जाता है, जबकि एरेका अखरोट को कामोद्दीपक माना जाता था। समय के साथ लोगों की चबाने की आदतें बदल गई हैं। पान का पत्ता को एक लिपटे पैकेज में एरेका नट और मिनरल स्लेक्ड लाइम के साथ एक साथ चबाया जाता है।

Q2: पान का पत्ता कितने प्रकार की होती है?

Ans:

पान का पत्ता का परिचय: दुनिया में पान का पत्ता की 90 से अधिक किस्में हैं, जिनमें से लगभग 45 भारत में और 30 किस्में पश्चिम बंगाल में पाई जाती हैं। पान का पत्ता को सदाबहार पत्तियों के लिए उष्णकटिबंधीय और उपप्रकार में उगाया जाता है जो पूजा / धार्मिक आयोजनों में और चबाने वाले उत्तेजक के रूप में उपयोग किया जाता है।