चने की खेती करने वाले किसान भाइयों के लिए उपयोगी सलाह
चने की खेती करने वाले किसान भाइयों के लिए उपयोगी सलाह
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Gram Cultivation: भारत में धान, मक्का, ज्वार, बाजरा, कपास एवं गन्ने की फसल कटने के बाद, जहां सिंचाई के साधन उपलब्ध हैं, चने की बुआई नवंबर के अन्त तक या दिसंबर के प्रथम सप्ताह तक कर सकते हैं। इस माह में ये फसलें पूर्ण बढ़वार अवस्था में होती हैं।

खरपतवार नियंत्रण आवश्यक
उत्पादकता में कमी को रोकने हेतु फसलों को खरपतवारों से मुक्त रखना आवश्यक है। बुआई के 30 दिनों बाद एक निराई-गुड़ाई कर खरपतवारों को निकालना काफी लाभदायक रहता है। इससे जड़ों की अच्छी बढ़वार तथा फसल से अधिक उपज प्राप्त होती है। चने में बुआई के 35-40 दिनों बाद शीर्ष कलिका की तुड़ाई से अधिक शाखाएं बनने से भी पैदावार अधिक होती है।
देर से बोई गई फसल में शाखा समय अथवा फली बनते समय 2 प्रतिशत यूरिया/डीएपी के घोल का छिड़काव करने से अच्छी पैदावार मिलती है।

चने की फसल में फूल बनते समय एक सिंचाई लाभदायक
उत्तर-पूर्वी मैदानी क्षेत्रों में फूल बनते समय एक सिंचाई लाभदायक पायी गयी है। उत्तर-पश्चिमी मैदानी तथा मध्य भारत क्षेत्रों में दो सिंचाइयां जैसे शाखाएं निकलते समय तथा दूसरी फूल बनते समय सर्वाधिक क्रान्तिक पाई गई हैं।
इस माह में सिंचाई प्रबंधन के साथ-साथ, खरपतवार और कीट-रोगों का प्रबंधन भी आवश्यक हो जाता है। चने में जल मांग संचित जल से ही पूरी हो जाती है। फिर भी मृदा में नमी के अभाव में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने तथा जाड़ों की वर्षा न होने पर पहली सिंचाई बुआई के 40-45 तथा 70-75 दिनों के बाद करना लाभपद्र होता है। फूल आने की अवस्था में सिंचाई नहीं करनी चाहिए अन्यथा फूलों के गिरने तथा अतिरिक्त वानस्पतिक वृद्धि होने की समस्या उत्पन्न हो सकती. है। दलहनी फसलों में स्प्रिंक्लर विधि से सिंचाई करना सर्वोत्तम है।

चने का उकठा रोग
चने की फसल का यह रोग प्रमुख रूप से हानि पहुंचाता है। इस रोग का प्रकोप इतना भयावह है कि पूरा खेत इसकी चपेट में आ जाता है। उकठा रोग का प्रमुख कारक फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम प्रजाति साइसेरी नामक फफूंद है। यह मृदा तथा बीजजनित रोग है। यह रोग पौधे में फली लगने तक किसी भी अवस्था में हो सकता है। उकठा रोग के लक्षण शुरुआत में खेत में छोटे-छोटे हिस्सों में दिखाई देते हैं और धीरे-धीरे पूरे खेत में फैल 'जाते हैं। इस रोग में पौधे की पत्तियां सूख जाती हैं। उसके बाद पूरा पौधा मुरझाकर सूख जाता है। ग्रसित पौधों की जड़ के पास चीरा लगाने पर उसमें काली काली संरचना दिखाई पड़ती है। उकठा रोग की रोकथाम के लिए बुआई अक्टूबर के अन्त या नवंबर के प्रथम सप्ताह में कर देनी चाहिए। बाविस्टीन 2.5 ग्राम या कार्बोक्सिन या 2 ग्राम थीरम या 2 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरिडी + 1 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करें।

चने की उकठा रोगरोधी किस्में
उन्नत देसी प्रजातियां जैसे-पूसा-372. जेजी 11. जेजी 12. जेजी 16, जेजी 63, जेजी 74. जेजी 130. जेजी 32, जेजी 315. जेजी 322. जे 5637, जे 5655. आरएसजी 888. आरएसजी 896, डीसीपी-92-3, हरियाणा चना-1. जीएनजी 663 । 
उन्नत काबुली प्रजातियां जैसे-पूसा चमत्कार, जवाहर काबुली चना-1. विजय, फुले जी-95311. जेजीके 1, जेजीके 21 जेजीके 3 आदि जैसी उकठा रोगरोधी किस्मों का चयन करें।

चने के रोगों की रोकथाम के उपाय
चने में भी बहुत से रोग लगते हैं, जिससे चने की पैदावार पर काफी असर पड़ता है। समय पर इन रोगों की पहचान एवं उचित रोकथाम से फसल को होने वाले नुकसान को काफी कम किया जा सकता है। झुलसा रोग की रोकथाम के लिए प्रति हैक्टर 2.0 कि.ग्रा. जिंक मैगनीज कार्बामेंट को एक हजार लीटर पानी में घोलकर 10 दिनों के अन्तराल पर दो बार छिड़काव करें या क्लोरोथालोनिल 70 प्रतिशत डब्ल्यूपी/300 ग्राम/एकड़ या बाविस्टीन 12 प्रतिशत + मैन्कोजेब 63 प्रतिशत डब्ल्यूपी/500 ग्राम/एकड़ या मेटिराम 155 प्रतिशत पायरोक्लोरेस्ट्रोबिन 5 प्रतिशत डब्ल्यूजी /600 ग्राम/एकड़ या टेबूकोनाजोल 50 प्रतिशत ट्रायफ्लोक्सीस्ट्रोबिन 25 प्रतिशत डब्ल्यू जी/100 ग्राम/एकड़ या ऐजोस्ट्रोबिन 11 प्रतिशत + टेबूकोनाजोल 18.3 प्रतिशत एससी/250 मि.ली./एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। जैविक उपचार के रूप में ट्राइकोडर्मा विरिडी/500 ग्राम/एकड़ या स्यूडोमोनास फ्लोरोसेंस/250 ग्राम/एकड़ की दर से छिड़काव करें।
पौधों की बुआई उचित दूरी पर करनी चाहिए तथा अत्यधिक वानस्पतिक बढ़वार से बचना चाहिए।