हरी मटर की उन्नत उत्पादन तकनीक अपनाकर कमा सकते है अधिक लाभ
हरी मटर की उन्नत उत्पादन तकनीक अपनाकर कमा सकते है अधिक लाभ
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Green Pea Cultivation : भारत में हरी मटर की खेती सबसे अधिक उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, हरियाणा आदि राज्यों में की जा रही है। मटर की खेती मुख्य रूप से हरी फलियों के लिए की जाती है, जो कि सब्जी बनाने के काम आती है तथा सूखे दानों का प्रयोग दाल के रूप में किया जाता है। इन उपयोगों के अतिरिक्त दाने वाली मटर का उपयोग जानवरों के राशन के रूप में किया जाता है। मटर के हरे पौधों का प्रयोग पशुओं के हरे चारे व हरी खाद के लिए किया जाता है। पकी हुई मटर सें दाना व भूसा दोनों ही प्राप्त होते हैं। दानों का प्रयोग दाल, सूप व रोटी बनाने के लिए किया जाता है तथा भूसे का प्रयोग पशुओं को खिलाने में किया जाता है। पतले छिलके वाली मटर की पूर्ण फलियों और छिली हुई हरी मटर के दानों को सुखाकर या डिब्बाबन्दी करके संरक्षित किया जाता हैं। जसका प्रयोग बाद में सब्जी के रूप में किया जाता है।

पोषक मूल्यः मटर पोषक तत्वों से सम्पन्न सब्जी है। जिसमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स, विटामिन एवं खनिज पदार्थ पाये जाते हैं।

जलवायुः मटर ठंडे मौसम की फसल है। इस फसल के लिए औसत तापमान 13-19° सें. और जहाँ चार माह तक ठंड का मौसम हो तथा धीमी गति से मौसम गर्मी की ओर अग्रसर हो, मटर उत्पादन के लिए अच्छा रहता है। बीजों के अंकुरण के समय मौसम में ठंडक होनी चाहिए । यदि बुवाई के समय तापक्रम कम होता है तो पौधा शाखायुक्त तथा धीमी बढ़वार वाला होता है जबकि अधिक तापमान होने पर पौधा लंबी बढ़वार वाला तथा कम शाखायुक्त होता है। पौधों में पाला सहन करने की क्षमता होती है लेकिन तापमान जब 30° से.ग्रे. से अधिक हो जाता है तब फलियों की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। 

भूमि व भूमि की तैयारी: मटर की खेती सभी प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है, परन्तु उचित जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी जिसमें कार्बनिक पदार्थ प्रचुर मात्रा में हो सबसे अच्छी मानी जाती है। जिस मृदा में पानी भराव न होता हो और पानी सोखने की क्षमता अधिक हो उनमें उत्पादन अधिक प्राप्त होता है। भूमि का आदर्श पी. एच. मान 6-7.5 उपयुक्त होता है अम्लीय एवं क्षारीय मृदा इसकी खेती के लिए अच्छी नहीं मानी जाती है। पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से उसके बाद दो से तीन जुताई कल्टीवेटर से करनी चाहिए और प्रत्येक जुताई के बाद समतलीकरण हेतु पाटा चलाना चाहिए।

उन्नत किस्में :
शीघ्र पकने वाली किस्में : 
किस्म : अर्किल
फसल अवधि : 60-65 दिन
उपज : 75-80 क्विंटल / हेक्टेयर
विशेषताएं : छोटे कद के पौधे 40-60 सें.मी., लम्बी आकर्षक फलियां लगभग 8 सें.मी. लम्बी, थोडी वक्रार, चिकने दाने, 6-7 दाने प्रति फली तथा प्रति बेल 5-7 फलियां

किस्म : मिटियोर
फसल अवधि : 60-65 दिन
उपज : 60-70 क्विंटल / हेक्टेयर
विशेषताएं : पौधे बोने, दाने सिकुड़े हुए मीठे स्वादिष्ट एवं सफेद फूल, पहली तुड़ाई 55-60 दिनों बाद में करनी चाहिए।

किस्म : पूसा प्रभात (डी.डी. आर-23)
फसल अवधि : 60-70 दिन
उपज : 80-85 क्विंटल / हेक्टेयर
विशेषताएं : यह किस्म सिंचित व बारानी अवस्थाओं के लिये उपयुक्त मानी गयी है। यह एक बौनी, अतिशिघ्र पकने वाली किस्म है। यह किस्म चूर्णिय, फंफूदी रोग के प्रतिरोधी है।

किस्म : पूसा पन्ना (डी.डी. आर. 27)
फसल अवधि : 65-75 दिन
उपज : 85-90 क्विंटल / हेक्टेयर
विशेषताएं : यह किस्म उत्तर प्रदेश, हरीयाणा, पंजाब, उत्तराखण्ड एवं हिमाचल प्रदेश में आसानी से उगाई जाती है। इसकी फलियां लम्बी व गहरे हरे रंग की होती हैं।

किस्म : आजाद मटर-5
फसल अवधि : 60-70 दिन
उपज : 100-105  क्विंटल / हेक्टेयर
विशेषताएं : इस किस्म फलियों में दानों की संख्या 8-9 होती है। दाने मोटे व रसीले मीठे होते हैं। पौधें मध्यम ऊंचाई वालें, फलियां लंबी और अन्तिम सिरे पर नुकीली गहरे हरे रंग की होती है।

मध्यम समय में पकने वाली किस्में:
किस्म : बौनविले
फसल अवधि : 85 दिन
उपज : 100  क्विंटल / हेक्टेयर
विशेषताएं : छाना खुदरा, फलियां लंबी, गहरी हरी तथा भरी हुई, दानें मोटें व मीठे होते हैं । 

किस्म : जवाहर मटर-1
फसल अवधि : 90 दिन
उपज : 115-120 क्विंटल / हेक्टेयर
विशेषताएं :  फली में दानों की संख्या 8-10 प्रोटीन 24.63 प्रतिशत होता है।

किस्म : जवाहर मटर-2
फसल अवधि : 95 दिन
उपज : 135-150 क्विंटल / हेक्टेयर
विशेषताएं : फली की लम्बाई लगभग 9 से.मी., फली का छिलका मोटा, दूरस्त बाजारों हेतु उपयुक्त 24.67 प्रतिशत प्रोटीन होती हैं।

किस्म : जवाहर मटर-3
फसल अवधि : 75-80 दिन
उपज : 75-80 क्विंटल / हेक्टेयर
विशेषताएं : फली की लम्बाई 6-7 से.मी. और प्रत्येक फली में 7-8 दाने होते । 

किस्म : पन्त उपहार
फसल अवधि : 75-80 दिन
उपज : 100 क्विंटल / हेक्टेयर
विशेषताएं : फूल सफेद फलियों में दाने भरे हुए अधिक उपज हेतु उपयुक्त। 

किस्म : आजाद मटर-1
फसल अवधि : 70-75 दिन
उपज : 100 क्विंटल / हेक्टेयर
विशेषताएं : पौधें मध्यम ऊंचाई वाले, फलियां लंबी और अन्तिम सिरे पर नुकीली। 

किस्म : पी. एस. एम.-3
फसल अवधि : 75-80 दिन
उपज : 95-100 क्विंटल / हेक्टेयर
विशेषताएं : फलियां लंबी और अन्तिम सिरे नुकीले होतें है।

किस्म : स्वाति
फसल अवधि : 80 दिन
उपज : 35-40 क्विंटल दाना / हेक्टेयर
विशेषताएं : पौधा बौना दाना बड़ा आकर्षक, दाने का भार 250 ग्राम / 1000 दाने 

किस्म : काशी उदय
फसल अवधि : 80-85 दिन
उपज : 95-100 क्विंटल दाना / हेक्टेयर
विशेषताएं : पौधें मध्यम ऊँचाई वाले होते है तथा दाने  मीठे व अधिक रसीलें होते है।

देर से पकने वाली किस्मः
किस्म : स्वर्ण रेखा 
फसल अवधि : 120 दिन
उपज : 80-100 क्विंटल दाना / हेक्टेयर
विशेषताएं : फूल सफेद, दाना बड़ा, सब्जी और दानों हेतु उपयुक्त

किस्म : एन.पी.-29
फसल अवधि : 100 दिन
उपज : 90-100 क्विंटल दाना / हेक्टेयर
विशेषताएं : छाना खुदरा, पौधे ऊचें एवं अधिक शाखाएं लिए होता है।

बुवाई का समय: दाल वाली मटर की बुवाई का समय 15-30 अक्टूबर तक है। देर से बुवाई करने पर उपज में भारी गिरावट आती है। हरी फलियों की (सब्जी) के लिये बुआई 20 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक करना लाभदायक रहता है विलम्ब से बुआई करने पर वानस्पतिक वृद्धि के लिये पर्याप्त समय न मिल पाने के कारण उपज पर कुप्रभाव पड़ता है। समय से पहले एवं समय के बाद बुवाई करने पर इसके उत्पादन तथा गुणवत्ता दोनों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

बीज की मात्रा: प्रमाणित एवं उपचारित बीज सदैव बोने चाहिए। बीज को 2.5 ग्राम थाइरम प्रति कि. ग्रा. बीज या कार्बनडाजिम से उपचारित करना चाहिये। अगेती प्रजातियों के लिये 100-125 कि.ग्रा. बीज / हेक्टर तथा पछैती प्रजातियों के लिये 75-80 कि.ग्रा. बीज / हेक्टर प्रयोग करना चाहिए। उचित समय पर बोई गई फसल के लिये पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 4-5 सें.मी. रखनी चाहिये।

बीज उपचार: सर्वप्रथम बीज को फफूंदनाशक दवा बाविस्टीन या थायरम 3 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करते हैं। जहां दीमक की समस्या हो उन स्थानों पर क्लोरोपायरीफॉस 6 मि.ली. प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें। चूंकि यह दलहनी फसल है, इस कारण राइजोबियम कल्चर से बीज को उपचारित करें। 

बीजों की बुवाई : बीजों की बुवाई कतारों में उपयुक्त दूरी पर करनी चाहिए। अगेती किस्मों में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30-50 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 4-6 से.मी. रखनी चाहिए तथा 4-5 से.मी. गहराई पर बुवाई करनी चाहिए । मध्यम किस्मों में पौधे से पौधे की दूरी 8-10 से.मी. तथा कतारों के बीच की दूरी 30-60 से.मी. रखनी चाहिए ।

खाद एवं उर्वरकः बुवाई से पहले 10-12 टन गोबर की सड़ी खाद खेत में प्रथम जुताई के साथ मिला दें। इसके अलावा अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 25 कि.ग्रा. नत्रजन, 50 कि.ग्रा. फॉस्फोरस एवं 40 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टर दे । नत्रजन की आधी मात्रा, फॉस्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय दें तथा नत्रजन की शेष मात्रा 30-40 दिन पश्चात दें।

बोने का समय: दाल वाली मटर की बुवाई का समय 15-30 अक्टूबर तक है। देर से बुआई करने पर उपज में भारी गिरावट आती है । हरी फलियों (सब्जी) के लिये बुवाई 20 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक करना लाभदायक रहता है। विलम्ब से बुवाई करने पर वनस्पतिक वृद्धि के लिये पर्याप्त समय न मिल पाने के कारण उपज पर कुप्रभाव पड़ता है। 

निराई-गुडाई एवं खरपतवार नियंत्रणः अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए खेत को हमशा खरपतवार से मुक्त रखा जाना चाहिए । बुवाई के 25-30 दिन पश्चात् खेत में हाथ से निराई-गुड़ाई करके खरपतवारों को निकाल देना चाहिए जिससे पौधों की उचित बढ़वार हो सके और भूमि में वायु संचार भी पर्याप्त रहे। जहां पर खरपतवारों की ज्यादा समस्या हो वहां पर खरपतवार नियन्त्रण के लिए 1 कि.ग्रा. फ्लूकोरेलिन (बसालिन) का 800-1000 लीटर पानी में घोल बनाकर फसल अंकुरण से पहले प्रति हेक्टर में छिड़ककर मिट्टी में 4-5 सें.मी. गहराई तक हेरो या कल्टीवेटर की सहायता से मिला देना चाहिए ।

सिंचाई : मटर के अच्छे अंकुरण के लिए पलेवा कर बुवाई करनी चाहिए। जिससे पर्याप्त नमी होने के कारण बीजों का अंकुरण अच्छा होता है। मटर को कम तथा बार-बार सिंचाई की आवश्यकता होती है इसलिए जहां तक हो सके हल्की सिंचाई बराबर समय अन्तराल से करते रहना चाहिए। अगर स्प्रिंकलर तकनीक से सिंचाई करते हैं तो उपज में काफी बढोत्तरी होती है। फूल आने से पूर्व एवं फलियों में दाना बनते समय सिंचाई अवश्य करें।

फसल चक्र : खरीफ की फसल जैसे ज्वार, बाजरा, मक्का, तिल एवं ग्वार आदि के बाद मटर की फसल साधारणतः ली जाती है। फसल चक्र का चयन निम्नानुसार करें जिससे कि खरपतवार, कीट व रोग नियंत्रण में सुविधा रहे तथा मृदा की उर्वराशक्ति को संरक्षित रखा जा सकें।

तना छेदक: मटर की अगेती बुवाई करने पर तना छेदक का अत्यधिक प्रकोप होता हैं। फसल बढ़वार की प्रारंभिक अवस्था में ही इसकी मक्खियां फलियों पर अंडे देती हैं। इसके लिए इनके शिशु तनें में सुरंग बनाकर अपना भोजन प्राप्त करते हैं। परिणामस्वरुप टहनी का अगला भाग मर जाता है। साथ ही पौधों की वृद्धि रुक जाती है। अतः पौधा सूख जाता है। इसके नियंत्रण हेतु फोरेट 10 प्रतिशत दानेदार दवा को 20 कि.ग्रा./ हेक्टर की दर से मिट्टी में मिला देना चाहिए।

फली छेदकः इस कीट का प्रकोप पछेती बोई गई फसल पर अधिक होता है। इसकी सूंडियां गहरे हरे रंग की होती हैं। इस कीट की सूंडियां बाद में भूरें रंग की हो जाती है। यह फूल आने से लेकर कटाई तक फसल को हानि पहुंचाती है। फूल आने सें पूर्व व फली में छेद करके अन्दर ही अन्दर दाने खाने लगती हैं। फली छेदक कीट की रोकथाम हेतु फूल आने से पूर्व व फली बनने के बाद मैलाथियॉन 50 ई.सी. का 2 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। सब्जी के लिए फलियों की तुड़ाई हमेंशा छिड़काव के 10 दिन बाद करनी चाहिए।

लीफमाइनरः यह कीट मटर की पत्तियों कों काफी नुकसान पहुंचाता है। संक्रमित पत्तियों को तोड़कर नष्ट कर देना चाहिए। खड़ी फसल में प्रकोप दिखने पर क्विनालफॉस 0.1 प्रतिशत दवा का स्प्रे करना चाहिए। इसके अलावा 1 लीटर मेटासिस्टॉक्स 100 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव किया जा सकता है।

उकठा तथा जड़ सड़न रोगः इसके उपचार के लिये 2.5 ग्राम कार्बेण्डाजिम और 1 ग्राम मैन्कोजेब प्रति कि.ग्रा. की दर से उपचारित करना चाहिए।

तुडाई एवं उपजः फलियों की सही समय पर तुड़ाई पौधे की जीवन अवधि के साथ-साथ उसके उत्पादन में भी वृद्धि करता है और फलियाँ गुणवत्तायुक्त प्राप्त होती हैं। सामान्यतः 3-4 तुड़ाई की जाती हैं। अगेती किस्मों में 50-60 दिन पश्चात् एवं मध्यम किस्मों में 70-80 दिनों पश्चात् तुड़ाई प्रारम्भ हो जाती है। अगेती किस्मों से 50-60 क्विंटल एवं मध्यम किस्मों से 80-100 क्विंटल उपज प्रति हेक्टर प्राप्त हो जाती है।