चने की उन्नत खेती, जानिए चने की वैज्ञानिक खेती करने का तरीका
चने की उन्नत खेती, जानिए चने की वैज्ञानिक खेती करने का तरीका
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Gram Cultivation: दलहनी फसलों में चने का महत्वपूर्ण स्थान है। पोषक मान की दृष्टि से चने के 100 ग्राम दाने में औसतन 11 ग्राम पानी, 21. 1 ग्राम प्रोटीन, 4.5 ग्राम वसा, 61.5 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 149 मि.ग्रा. कैल्शियम, 7.2 मि.ग्रा. लोहा, 0.14 मि.ग्रा. राइबोफलेविन तथा 2.3 मि.ग्रा. नियासिन पाया जाता है। इसकी हरी पत्तियाँ साग तथा दाने दाल बनाने में प्रयुक्त होते हैं। चने की दाल से अलग किया हुआ छिलका और भूसा पशुओं के चारे के काम आता है। चना दलहनी फसल होने के कारण यह जड़ों में वायुमंडलीय नाइट्रोजन स्थिर करती है। जिससे खेत की उर्वराशक्ति बढ़ती है

चने की उन्नत किस्में
देशी चने की किस्में :- सी.एस. जे 515 (CSJ 515), जी.एन. जी. 1958 (GNG1958), जी.एन.जी. 1581 (GNG1581), पूसा 5023, पूसा 547, पूसा 1103, जी. एस. जी. 2171 (GNG2171) आदि 2. काबुली चने की उन्नत किस्में :- वल्लव काबुली चना-1, पूसा 3022, पूसा 2024. हरियाणा काबुली चना-1, पूसा 1108 आदि। 

भूमि का प्रकार
चने की खेती दोमट भूमि से मटियार भूमि में सफलतापूर्वक की जा सकती है एवं मृदा का पी.एच. मान 6-7.5 उपयुक्त रहता है।

चने की बुवाई का समय एवं बीज की मात्रा
चने की बुवाई का उचित समय अक्टूबर का दूसरा पखवाड़ा उपयुक्त रहता है यदि धान की फसल के बाद चने की बुवाई करनी है तो नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक कर लेनी चाहिए। बीज की मात्रा बीज के आकार पर निर्भर करती है। सामान्य दानों वाला चना 70-80 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर, मोटे दाने वाला चना 80-100 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर एवं काबुली चना (मोटा दाना) 100-120 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए

खेत की तैयारी एवं बुवाई की विधि
मृदा में वायु संचरण चने के पौधो की वृद्धि एवं विकास के लिए आवश्यक है। एक गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के उपरान्त एक जुताई विपरीत दिशा में हैरो या कल्टीवेटर द्वारा करके पाटा लगाना पर्याप्त है। चने की बुवाई सीड ड्रिल द्वारा 7-10 से.मी. की गहराई तक करनी चाहिए जिसमें कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 8 से 10 से.मी. रहनी चाहिए।

बीज उपचार
चने की फसल में अनेक प्रकार के कीट एवं बीमारियाँ हाि पहुंचाते हैं। इनके प्रकोप से फसल को बचाने के लिए बीज को उपचारित करके ही बुवाई करनी चाहिए। बीज को उपचारित करते समय सावधानी रखना चाहिए कि सर्वप्रथम बीज को फफूंदनाशी, फिर कीटनाशी तथा अन्त में राइजोबियम कल्चर से उपचारित करें। बीज को कार्बेन्डाजिम या मैन्कोजेब या थाइरस की 1.2 से 2 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। दीमक एवं अन्य भूमिगत कीटो की रोकथाम के लिए क्लोरोपाइरीफोस 20 ई.सी. की 8 मिली. मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। अन्त में बीज को राइजोबियम कल्चर एवं फास्फोरस घुलनशील जीवाणु की 500 ग्राम प्रति हेक्टेयर क्षेत्र के लिए आवश्यक बीज की मात्रा को उपचारित करें। बीज को उपचारित करने के लिए एक लीटर पानी में 250 ग्राम गुड़ को गर्म करने के बाद ठंडा होने पर उसमें राइजोबियम कल्चर व फास्फोरस घुलनशील जीवाणु को अच्छी तरह मिलाकर उसमें बीज उपचारित करना चाहिए। उपचारित बीज को लगभग 2 घंटे तक छाया में सुखाकर शीघ्र बुवाई करनी चाहिए।

खाद एवं उर्वरक प्रबंधन
खाद एवं उर्वरको के प्रयोग एवं बुवाई से पहले खेत की मिट्टी की जांच करानी आवश्यक है। अच्छी पैदावार के लिए 10-15 टन सड़ी गोबर की खाद खेत की तैयारी के समय मिलायें। दलहनी फसल होने के कारण चने की फसल में कम नाईट्रोजन की आवश्यकता होती है। चने के लिए 20 किलो ग्राम नाईट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, 30 किलोग्राम पोटाश, एवं 30 किलोग्राम सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के समय प्रयोग करना चाहिए ।

सिंचाई प्रबंधन
सिंचाई की आवश्यकता पड़ने पर पहली सिंचाई शाखाएँ बनते समय तथा दूसरी सिंचाई फली बनते समय देनी चाहिए। फूल बनने की अवस्था में सिंचाई नहीं करनी चाहिए। इस समय सिंचाई करने पर फूल झड़ जाते है । 

खरपतवार प्रबंधन
पहली निराई-गुड़ाई बीज बुवाई के 25-30 दिन बाद और दूसरी 60 दिन बाद करनी चाहिए । रसायनों द्वारा खरपतवारों को नियंत्रण करने के लिए फ्लूक्लोरेलिन की 1.5 से 2 लीटर मात्रा को 700-800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई से पूर्व सतह की मिट्टी में अच्छी तरह मिलाए। यदि बुवाई के 15-20 दिन बाद खेत में खरपतवार ज्यादा दिखाई दे तो कुजालोफॉप ईथाइल की 1 लीटर मात्रा, 700-800 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। 

पादप सुरक्षा
उकठा रोग:- उकठा रोग का प्रमुख करक फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम प्रजाति साइसेरी नामक फफूँद है। यह एक मृदा एवं बीज जनित बीमारी है। इसकी रोकथाम के लिए गर्मियों में गहरी जुताई करें। 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन) या कार्बे क्सिन एवं 4 ग्राम टाइकोडर्मा विरिडी प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करें।

शुष्क मूल विगलन (ड्राई रूट रॉट) :- यह मृदा जनित रोग है, पौधो में संक्रमण राइजोक्टोनिया वटाटीकोला नामक कवक से फैलता है। इसकी रोकथाम के लिए फसल चक्र अपनाएं एवं समय पर बुवाई एवं फंफूंदनाशक द्वारा बीजोपचार करें।

झुलसा रोग (एस्कोकाइटा ब्लाइट) :- एस्कोकाइटा पत्ती धब्बा रोग एस्कोकाइटा रेबि नामक फंफूद द्वारा फैलाता है। इसकी रोकथाम के लिए बीज का फंफूंदनाशक द्वारा बीजोपचार करें। खड़ी फसल में मैनकोजेब का 2-3 ग्राम / लि0 के हिसाब से पानी का 2-3 बार छिड़काव करें।

चना फली भेदक- यह हेलिकोवर्पा आर्मिजेरा एक बहुभक्षी कीट है। इसके प्रबंधन के लिए गर्मियों में गहरी जुताई करें, जिसके करने से कीट को कोषक (प्यूपा) मर जाते हैं ।
1. एच.ए.एन.पी.वी. 250 एल.ई (डिम्ब समतुल्य) + टीनॉपोल 1 प्रतिशत का छिड़काव करें। इसके घोल में 0.5 प्रतिशत गुड़ एवं 0.01 प्रतिशत तरल साबुन का घोल डालने से क्रमशः कीटो के आकर्षण एवं एन.पी.वी. के पत्तियों पर फैलने में मदद मिलती है।
2. निबौली (नीम बीज गुठली) के सत का 5 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव करें। 3. इण्डोक्साकार्व का 1 मि.ली. मात्रा प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें ।

कटुआ कीट (कटवर्म) :-  1. कटुआ कीट के नियंत्रण के लिए एक हेक्टेयर क्षेत्र में 50–60 बर्ड पर्चर (पक्षी मचान) लगाना चाहिए ताकि चिड़ियाँ उन पर बैठकर सूड़ियों को खा सकें। 
2. क्यूनालफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण 25 किलोग्राम / है० का भुरकाव शाम के समय करने से इसके प्रकोप से बचा जा सकता है।

दीमक - दीमक के नियंत्रण के लिए क्लोरपाइरिफास 20 ईसी की 8 मिली0 मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज शोधन करें। खड़ी फसल में दीमक लगने पर 3-4 लीटर क्लोरपाइरिफास 20 ई. सी. की मात्रा प्रति हे0 की दर से सिंचाई के साथ प्रयोग करें ।

अर्द्धकुण्डलीकार कीट (सेमीलूपर) :- इस कीट की सूडियाँ हरे रंग की होती है जो लूप बनाकर चलती है। सूडियाँ पौधे के सभी भागों को खाकर क्षति पहुंचाती है। इसके नियंत्रण के लिए एमामेक्टिन बेंन्जोएट 0.2 ग्राम / ली पानी या स्पीनोसेड़ 0.25 ग्रा / ली के हिसाब से पानी में घोलकर छिड़काव करें। 

उपज
उन्नत तकनीकियों का प्रयोग कर उगायी गई चने की फसल द्वारा 20-22 कु० उपज प्रति हैक्टेयर प्राप्त की जा सकती है।