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डिण्डोरी जिले का गठन मंडला जिले से विभाजित होने के बाद 1998 में किया गया था इसीलिए जिले के इतिहास लेखन, मण्डला जिले के समान है। डिंडोरी का मूल नाम 1951 तक रामगढ़ था, जो मंडला की एक तहसील थी | बाद में, रामगढ़ का नाम डिण्डोरी के रूप में जाना जाने लगा ।

कोदू कुटकी बाजरा प्रजाति की अनाज है | इनका वानस्पतिक नाम क्रमशः Paspalum Scrobiculatum और Panicum Sumatrance है | कोदू और कुटकी के दानों को चावल की तरह खाया जा सकता है | इनके दाने में क्रमशः 8.3 और 7.7 ग्राम प्रोटीन होता है | डिंडौरी ज़िले में इनकी खेती बैगा और गोंड समुदाय द्वारा पहाड़ो की ढलान में अधिक क्षेत्रफल में की जाती है | ज़िले के मेहंद्वानी विकासखंड में तेजस्वनी कार्यक्रम के अंतर्गत महिल समूहों द्वारा कोदू-कुटकी की जैविक खेती बड़े पैमाने पे की जा रही है |

मध्य प्रदेश के जनजातीय जिला डिंडोरी में कोदो-कुटकी को फिर से पहचान दिलाने की कोशिशें शुरू हो गई हैं। वहां की महिलाओं के स्वयं-सहायता समूह कोदो-कुटकी से बने कई उत्पाद तैयार कर रहे हैं। इन उत्पादों को भारती ब्रांड के नाम से बाजार में उतारा गया है। गौरतलब है कि डिंडोरी जिले के 41 गांवों की बैगा जनजातीय महिलाओं ने तेजस्विनी कार्यक्रम के जरिए कोदो-कुटकी की खेती शुरू की।

कोदो भारत का एक प्राचीन अन्न है जिसे ऋषि अन्न माना जाता था। इसके दाने में 8.3 प्रतिशत प्रोटीन, 1.4 प्रतिशत वसा तथा 65.9 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट पाई जाती है। कोदो-कुटकी मधुमेह नियंत्रण, गुर्दो और मूत्राशय के लिए लाभकारी है। यह रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक के प्रभावों से भी मुक्त है। कोदो-कुटकी हाई ब्लड प्रेशर के रोगियों के लिए रामबाण है। इसमें चावल के मुकाबले कैल्शियम भी 12 गुना अधिक होता है। शरीर में आयरन की कमी को भी यह पूरा करता है। इसके उपयोग से कई पौष्टिक तत्वों की पूर्ति होती है।

मध्‍यप्रदेश के मंडला-डिंडौरी जिले में उत्पादित कोदो-कुटकी की डिमांड देश के साथ ही विदेशों में भी लगातार बढ़ रही है। ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका से आ रही मांग के चलते किसान खासे उत्साहित हैं। देश के फाइव स्टार होटलों में भी इसकी काफी मांग है। कई बीमारियों में कारगर कोदो-कुटकी को औषधि के रूप में भी इस्तेमाल में लाया जा रहा है।